पढ़ने की ललक ने ली मासूम की जान


कौशलेंद्र प्रपन्न
‘मम्मी- पापा मुझे माफ कर देना मैं दुनिया छोड़ कर जा रहा हूं। मैं पढ़ना चाहता था। पढ़कर डाक्टर बनने की इच्छा थी ताकि मैं गरीबों की मदद कर सकूं। लेकिन मेरी किस्मत में शायद यह नहीं लिखा था।’ इन शब्दों, वाक्यों पर नजर डालें तो एक ऐसी बेबसी दिखाई देगी जो किसी भी सभ्य एवं शिक्षित समाज के गाल पर थप्पड़ से ज़रा भी कम नहीं होगा। क्यों इन पंक्तियों लिखना वाला बच्चा महज आठवीं कक्षा में पढ़ता था, लेकिन घर माली स्थिति खराब होने की वजह से स्कूल से बाहर कर दिया गया। गोया यह बच्चा उस निजी स्कूल की कालीन में पेबंद की की तरह था। यह घटना कहीं और नहीं बल्कि देश की राजधानी महानगर दिल्ली में केंद्र एवं राज्य सरकार के साथ ही अन्य तमाम आयोगों के नाक के नीचे आठवीं क्लास में पढ़ने वाला एक बच्चा स्कूल प्रशासन की ओर से फीस न दिए जाने पर स्कूल न आने के आदेश सुनने के बाद मायूस हो कर पंखे से लटक गया। दरअसल बच्चे की मां उसी स्कूल में कभी बतौर नर्स काम किया करती थी। लेकिन किन्हीं वजहों से उससे इस्तीफा ले लिया गया। जाते- जाते सकूल प्रशासन की ओर से आश्वासन दी गई कि उसके बच्चे को 12 वीं कक्षा तक स्कूल में निःशुल्क शिक्षा, किताब एवं स्कूल डेस दी जाएगी। लेकिन समय के साथ प्रशासन की नजर बदल गई। और हप्ते भर पहले आदेश दिया गया कि दो माह की फीस 12,000 एक हप्ते के अंदर जमा करना होगा वरना स्कूल में बैठने नहीं दिया जाएगा। उस बच्चे के पिता साधारण से किसी कंपनी में बेहद ही कम पैसे पर काम करते हैं। इतनी बड़ी रकम चुकाने में अपनी असमर्थता दिखाई। बस क्या था प्रशासन ने साफ शब्दों में सुना दिया कि फीस नही ंतो स्कूल में बैठने नहीं दिया जाएगा।
सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के सामने स्कूल जाने, शिक्षा ग्रहण करने में कैसी और किस तरह की परेशानियां का सामने करना पड़ता है। यदि यह समझ लिया जाए तो हम लाखों बच्चों को स्कूल की परीधी में ला सकते हैं। लेकिन इन बच्चों को शिक्षित करने की जिस प्रकार की प्रतिबद्धता की आवश्यकता है उसमें कहीं बहुत बड़ा फांक है। सरकार ने तो पिछले साल 1 अप्रैल 2010 से शिक्षा के अधिकार कानून लागू कर चुकी है। इस कानून से कम से कम इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि राज्य एवं केंद्र सरकार शिक्षा की आवश्यकता को गंभीरता से ले रही है। सरकारी तंत्र के साथ ही साथ इसी के समानांतर गैर सरकारी संस्थाएं भी शिक्षा के प्रसार- प्रचार के लिए कई योजनाएं चला रही हैं। विदेशी अनुदानों की सहायता से चलने वाली शैक्षिक योजनाओं पर हर साल लाखों रुपए खर्च किए जा रहे हैं।
एक ओर सरकार देश के हर बच्चों को शिक्षा, स्कूल एवं ज्ञान की परीधी में लाने के लिए विभिन्न प्रकार की योजनाएं चला रही हैं। शिक्षा को कानूनी तौर पर बुनियादी अधिकार घोषित किए जाने के बावजूद भी हकीकत यह है कि अभी भी देश में 80 मिलियन बच्चे स्कूल ही नहीं जाते। जो जाते हैं उन्हें किस स्तर की शिक्षा, स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापकों से वास्ता पड़ता है इसका एक जीता जागता उदाहरण हम एक गैर सरकारी संस्था पहल की ओर से की गई सर्वेक्षण रिपोर्ट को देख कर लगा सकते हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के विभिन्न राज्यों में स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा इस गुणवत्ता की है कि पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा पहली व दूसरी कक्षा के गणित के सवाल हल नहीं कर सकता। भाषा हिंदी व अंग्रेजी तो और दूर की कौड़ी है। इन्हें हिंदी व अंग्रेजी लिखने, बोलने, पढ़ने आदि तालीम ही नहीं दी जाती। ऐसे में अनुमान लगाना कठिन नहीं कि हमारे भविष्य के युवाओं को किस स्तर एवं गुणवत्ता वाली समान शिक्षा मिल रही है। हालांकि सरकार बार बार अपनी प्रतिबद्धता तो दुहराती रही है कि सरकार हर बच्चे को बिना किसी भेद भाव के सबको समान शिक्षा मुहैया कराने के प्रति वचनबद्ध है। लेकिन सच्चाई यह है कि जिस प्रकार की शिक्षा सरकारी स्कूलों में बच्चों को दी जाती है उसके स्तर एवं गुणवत्ता परखने और पुनर्मूल्यांकन कर नीतियों एवं कार्यवाही में परिवत्र्तन लाने की आवश्यकता है वरना एक ओर सरकार सर्व शिक्षा अभियान, आंगन बाड़ी, हर बच्चा पढ़ेगा जीवन में आगे बढ़ेगा जैसे कर्णप्रिय जयकार के सिवा और कुछ नहीं होगा।
गौरतलब है कि जनवरी और फरवरी के शुरू के दो हप्ते में तमाम अभिभावकों ने विभिन्न स्कूलों के दरवाजे पर कतार में खड़े होकर फार्म की प्रक्रिया पूरी की। लाॅटी जैसे जूए वाले खेल के जरिए बच्चों के दाखिले का फैसला लिया गया। जिन बच्चों के नाम आए वो तो न्यारे हुए बाकी को तो मायूस प्रशासन, सरकारी नीतियों को कासने के सिवाए कोई और रास्ता नहीं दिखा। दिल्ली सरकार की ओर शिक्षा मंत्री अवरिदर सिंह लवली ने कुछ शिकायतों के आधार पर कि फलां फलां स्कूल आर्थिक एवं समाजिक स्तर पर पिछड़े बच्चों के नामांकन में आरक्षण वाले कोटे में दाखिला देने से मना कर रहे हैं। इन शिकायतों के मद्दे नजर शिक्षा मंत्री ने कड़े कदम उठाते हुए आदेश जारी किया कि यदि कोई गैर-सरकारी स्कूल आरक्षित कोटे में दाखिले से मना करती है तो उसके खिलाफ आपराधिक कारवाई की जा सकती है। क्योंकि पिछले साल शिक्षा कानून बन जाने के बाद आदेश की अवहेलना करने पर कड़ी नजर होगी। लेकिन निजी स्कूलों के प्रबंधकीए समितियों ने सरकारी के प्रस्ताव व आदेश को मानने से एक सिरे से नकार दिया। इस इंकार के पीछे उनके तर्क यह थे कि हम महंगाई के इस दौर में सभी ईवीएस के बच्चों को मुफ्त शिक्षा, किताब एवं वर्दी मुहैया कराने में असमर्थ हैं। सरकार की ओर प्रस्तावित सहायता राशि 1000-1300 काफी नहीं हैं। या तो सरकार हमें इस आदेश से बरी करे या सहायता राशि बढ़ाए। यदि हमें सरकार स्कूल फीस बढ़ाने की अनुमति देती है तो हम इस पर विचार कर सकते हैं।
ज़रा सोचें एक ही देश में जहां एक ओर पूरी तरह से एसी की ठंढ़ी हवाओं में बच्चे पढ़ते हैं जिनके लिए हर प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हैं। वहीं दूसरी ओर साधनविहीन ऐसे सरकारी स्कूलों की संख्या कोई कम नहीं हैं जहां पीने के लिए पानी शौचालय तक के लिए बच्चे- बच्चियों को खुले में या रोड़ पार कर जाना पड़ता है। बहार घात लगाए बैठे दरिंदे इन्हें दबोच लेते हैं। इसमें सीधे तौर से सरकार एवं उसकी नीतियां जिम्मेदार मानी जाएंगी। जो सस्ती दरों पर निजी कंपनियों, घरानों को स्कूल खोलने की अनुमति तो दे देती है लेकिन सरकार के आदेश नहीं मानते लेकिन सरकार कुछ ठोस कदम नहीं उठा पाती।
यदि गौर करें तो आज शिक्षा एवं स्कूल पूरी तरह से काॅरपोरेट सेक्टर में तबदील हो चुका है यहां पढ़ाने वाले अध्यापक/ अध्यापिका शुद्ध रूप से प्रोफेसनल हो चुके होते हैं। इन्हें नैतिकता, मूल्य व कर्म की प्रतिबद्धता थोथी चीज लगती है। अगर इसके वजहों की गहराई में जाएं तो पाते हैं कि जहां जिन संस्थाओं ‘शिक्षा प्रशिक्षण’ से निकल कर आज के शिक्षक व शिक्षिका आती हैं वहां भी जिस प्रकार का अध्यापन किया जाता है वह भी शक के घेरे से बाहर नहीं कह सकते।

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