पर्यावरण ——- डा० श्रीमती तारा सिंह


प्रदूषित ,पर्यावरण के लिए, जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि, गरीबी तथा शिक्षा का अभाव तो है ही ; साथ ही आधुनिक राष्ट्र- निर्माण के लिए धुरुल्ले से वन का कटाव, प्रकृति सम्पदा का विघटन, बढ़ता शहरीकरण, सबसे बड़ी और गंभीर समस्या है । शिक्षा का अभाव, अच्छाई- बुराई का फ़र्क समझने नहीं देता ;जिसके कारण राष्ट्र का आर्थिक और भौगोलिक ,दोनों विकास रुक जाता है । वनों का दिनोंदिन विलुप्त होना, सूखा को निमंत्रण देना है ; जब कि हमारा देश, कृषि प्रधान है । यहाँ सिंचाई की व्यवस्था नहीं के बराबर है । किसान बारिश के लिये ऊपर आकाश पर नजरें गड़ाये जीता है । समयानुकूल बारिश हुई, तब तो सब ठीक , अन्यथा, बाहर अनाज भेजने की कल्पना छोड़िये, देश की भूख मिटाने के लिए हमें विश्व के अन्य देशों से अनाज मँगाना पड़ जाता है ।
औद्योगिक इकाइयों द्वारा, गंदे जल की सीधी निकासी नदियों में धरल्ले से करना, मरे हुए जानवर, अधजली लाशें, नदियों में फ़ेंकने से ,नदियों का जल और प्रदूषित हो रहा है । स्वर्ग से उतरकर, धरा पर बहनेवाली, भगीरथ की गंगा, जिसके अमृत जल को हाथ में लेकर हम जीने-मरने की कसम खाते है, आज हथेली में लेने लायक भी नहीं है । गंगा के किनारे बसे लोगों द्वारा ही नहीं,दूर –दराज से भी आकर लोग अधजले लाशों को गंगा में प्रवाह करते हैं , जिसके सड़ने से गंगा प्रदूषित हो रही है । हालात इतनी गंभीर है कि आज गंगा के स्वच्छ्ता अभियान में अंश ग्रहण करने वाले स्वयंसेवी दो दिनों बाद ही थककर घर बैठ जाते हैं, कारण पानी कम, गंदगी अधिक,कहाँ से शुरू करें और कहाँ खतम, उन्हें समझ में नहीं आती है ।
डेवेलपमेन्ट अल्टरनेटिव्स के सहयोग से तैयार किया , रिपोर्ट बताता है कि हमारे देश की माटी में क्षारीय तत्व इतनी तेजी से बढ़ रहा है और बंजर जमीनों का दायरा इतना विस्तृत हो रहा है कि देश का ४५% जमीन कुछ उपजाने लायक ही नहीं रहा, और अगर कुछ उपज भी गया, तो वह फ़सल खाने लायक नहीं रहता है । हाल के केन्द्रीय प्रदूषण बोर्ड और आल इन्डिया मेडिकल साइन्स के ज्वाइन्ट सर्वे के मुताबिक देश के पचास शहरों में रहने वाले लोगों में से लगभग ग्यारह करोड़ लोग धूल और धुएँ से उत्पन्न रोगों के शिकार हैं । इसका कारण तेजी से बढ़ रहा, परिवहन है, जिसे सरकार द्वारा नियंत्रण करने की बात अभी तक परिकल्पना में है । यही हाल पानी का है — पानी की समस्या का प्रमुख कारण हमारे देश में अनियमित तरीके से पानी की आपूर्ति (सप्लाई ) है । कमजोर निकासी, उद्योंगों द्वारा मनमानी दोहन, बड़े- बड़े फ़ैक्टरियों द्वारा भू – जल में रसायन छोड़ना, तथा खेतों में किसान द्वारा, बेतहासा केमिकल और फ़र्टिलाइजर का व्यवहार, प्रदूषण के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं ।
यही कारण है, भारत दुनिया का १७वाँ बहुविविधता वाला देश होकर भी , यहाँ प्राकृतिक विविधता का १०% प्रतिशत हिस्सा, खतरे के करीब पहुँच चुका है । अगर यही हाल रहा, तो
जल्द ही ये सभी विविधताएँ लुप्त हो जायेंगी । दुख की बात है , आजादी के बाद विकास का जो माडल हमने चुना, उससे सभी तबके के लोग लाभान्वित हो रहे हैं ; ऐसी बात नहीं है । इससे सिर्फ़ और सिर्फ़ समाज के ऊपरी परत के लोग लाभान्वित हो रहे हैं । परिणाम ,आज देश की तीन चौथाई आबादी के पास दो जून की रोटी के लाले पड़े हुए हैं और दूसरी ओर उद्योगपति सोने के महल और चाँदी का पलंग बनवा रहे हैं । गाँव में जीने की मूलभूत सुविधा तथा पेट की आग बुझाने के कारगर उपाय नहीं होने के कारण, लोग शहर की ओर पलायन कर रहे हैं और शहर आकर पैसे के अभाव में, जैसे-तैसे, जहाँ-तहाँ झुग्गी- झोपड़ी बनाकर तथा उनका खुली जगहों पर शौच करना, पोलीथीन ( जो कि कभी खुद से नष्ट नहीं होता है ) का बेतहाशा व्यवहार, देश के आब-वो-हवा को और दूषित कर रहा है । आज देश की आबादी का २० से ४० प्रतिशत लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं । उन्हें मूलभूत सुविधाएँ देकर, गाँवों से पलायन कर रहे आबादी को गाँव में ही जीने की व्यवस्था कर इस पलायन को रोका जा सकता है । मगर दुख की बात तो यह है कि हमारी सरकार, देश में बढ़ते प्रदूषण से चिंतित तो है पर उनके पास इससे निबटने के लिए ऐच्छिक कोई योजना नहीं है ।
आज देश को, क्षेत्रवाद और जातिवाद की घिनौनी राजनीति से उठकर, मानवतावाद पर सोचना होगा और इसके लिए पर्यावरण को स्वच्छ और साफ़ कैसे रखा जा सकता है, देश के चारो कोनों को मिल-जुलकर काम करना होगा । पृथ्वी पर प्राकृतिक आपदाएँ जन्म लेकर, प्रकृति की विकरालता को न बढ़ायें; इसका ख्याल रखना होगा , नहीं तो आने वाली पीढ़ी को इसकी काली छाया निगल जायगी । हम जानते हैं, हमें जन्म देने वाला ईश्वर बड़ा दयालु है । यदि हम आज से सुधर जाने की सपथ ले लें तो अब तक जो हमने भूल की है, उसे वह माफ़ कर देगा, और आगे यह देश फ़िर से स्वर्गखंड कहलायेगा ।

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