स्त्री और पुरुष, दोनों के देह की बनावट, विचार और स्वभाव, एक दूसरे से
भिन्न होकर भी दोनों एक दूजे का पर्याय होते हैं । एक के बिना दूसरे का
बजूद अधूरा है । इन दोनों के बीच चुम्बक और लोहे सा खिंचाव होता है ,जहाँ
भाषा- परिवेश, अमीरी- गरीबी, सुंदर-कुरूप, सागर- पहाड़ कुछ आड़े नहीं आता ।
स्त्री चूंकि कोमलांगी होती है ,तो उनका स्वभाव भी शीशे की तरह पारदर्शी और
कमजोर होता है , जो पुरुष की छो्टी सी बेवफ़ाई से टूटकर चकनाचूर हो जाता है
। त्याग और बलिदान की यह सजीव मूर्ति, इसे सह नहीं पाती है और न ही इसका
जोरदार आवाज में प्रतिकार ही कर पाती है । तब इनके विवश आँखों से सावन झरने
लगता है;ऐसे परिवेश में वह जिंदगी को जीती है, मगर जीवन को प्रतिक्षण चिता
की ओर ढ़केलती रहती है । यही कारण है कि पुरुष की तुलना में, स्त्री की आयु
कम होती है । त्याग की यह देवी कभी –कभी जवानी की दहलीज भी पार नहीं कर
पाती है और संतान को जन्म देने वक्त दुनिया से बेउम्र विदा हो जाती है ।
आयु का कम होना, रोग-शोक-पीड़ा से पीड़ित होकर जीना—- इस अभागिन के स्वभाव
में बचपन से ही आदत डाल दी जाती है । हमारे समाज में आज भी अधिकतर
माँ-बाप,बेटे और बेटियों के लालन-पालन में फ़र्क बनाये हुए हैं । समाज में,
जो आजादी और सुख-सुविधा बेटे को मिलती है , बेटियों को इसका ख्वाब भी देखना
मना होता है । यही कारण है, त्याग और सेवा इनकी फ़ितरत होती है ।
दुख तो इस बात की है कि खुद प्रकृति कही जानेवाली इस नारी को पुरुष अपने
बेडरूम की सजावट के सिवा और कुछ नहीं समझता । प्रति पग मर्दों के हाथों ठगी
जाती है ; चाहे वह शयन-कक्ष के अंधेरे में मिलन की बात हो, या दिन के उजाले
में विचार- विमर्श की ; नारी हमेशा घाटे में रहती है । पुरुष हर बार उसकी
इच्छा का बलात्कार करता है ।