कुछ अपना-सा, कुछ बेगाना-सा शहर भोपाल —लोकेन्द्र सिंह राजपूत


ऋ षि गालव की तपोस्थली ग्वालियर (ग्वाल्हेर) से राजा भोज की नगरी भोपाल (भोजपाल) आए हुए तकरीबन 25 दिन हो गए हैं। भोपाल प्रदेश की राजधानी है। राजधानी में रहने का सुख पाना बहुतों का सपना होता है। मेरा भी था। लेकिन, अब तक मुझे भोपाल में सुखद अनुभूति नहीं हो सकी है। हां, ग्वालियर से बिछुडने की पीड़ा जरूर है। ग्वालियर मुझे रोज याद आता है। आबाद भोपाल में रहने के लिए अब तक एक ठिकाना नहीं ढूंढ सका हूं। शायद इसलिए भी कि मुझे आफिस के नजदीक ही रहना है और अपना जेब भी छोटी है। वो तो शुक्र है कि यहां मेरे कुछ अजीज रहते हैं, जिनसे हौसला कायम है। वरना मैं अब तक उल्टे पैर ग्वालियर भाग लिया होता। दीपक जी सोनी, प्रमोद जी त्रिवेदी, मुकेश जी सक्सेना, अनिल जी सौमित्र। इन सबसे मेरे दिल के तार बहुत गहरे जुड़े हैं। भोपाल में ये सब मेरा सबसे बड़ा सहारा हैं। इनके अलावा कुछ और भी हैं जिन पर मैं अपना अधिकार रखता हूं। कुछ नए दोस्त भी बने हैं। इन सबकी वजह से पहाड़ सी परेशानियां भी बौनी नजर आती हैं।
यह पहली दफा नहीं है कि मैं घर से बाहर रह रहा हूं। फर्क इतना है पहले पता रहता था कि दो-तीन महीने गुजरने के बाद वापस घर पहुंच जाउंगा। इस बार आने का तो पता था, लेकिन घर कब जाऊंगा यह नहीं पता। शायद इसलिए ही रह-रहकर ग्वालियर की बहुत याद आती है। बात इतनी सी नहीं है। दरअसल सुना है कि यहां चूना बहुत लगाया जाता है। यहां एक जगह का तो नाम ही चूना भट्टी है। भोपाल आते ही एक साहित्यक पत्रिका के माध्यम से साहित्यकार ने आगाह कर दिया कि भैया भोपाल में संभलकर रहना। न जाने कब कोई भोपाली सूरमा (सूरमा भोपाली) मिल जाए और मजाक-मजाक में चूना लगा जाए। इस बात पर विश्वास करने के अलावा कोई और चारा भी नहीं था। साहित्यकार आला दर्जे का था और खुद चूनाभोगी (भुक्तभोगी) था। सो गुरू बहुत डर बैठा है मन में। अपुन ठहरे बाबा भारती कोई भी डाकू सुल्तान ठग सकता है।
वाहन विहीन हूं। आफिस जाते वक्त चेतक ब्रिज मिलता है। दरअसल आफिस चेतक ब्रिज के पास ही है। पुल के ठीक बीच जाकर खडा हो जाता हूं। वहां से नीले और लाल रंग की लम्बी-लम्बी ट्रेनें गुजरती हैं। मन करता है कि हीरो की माफिक पुल से सीधे ट्रेन पर कूद सवार हो जाऊं और घर पहुंच जाऊं। लेकिन, यह भी संभव नहीं। खैर, थकहार कर फिर से एक अदद ठौर की तलाश में जुट जाता हूं। माना कि कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली। लेकिन, ये भी सही है कि एक दिन तेली के दिन भी फिरेंगे और राजा भोज अपनी नगरी में उसे ससम्मान स्थान देंगे।

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