पहाड़, नदियां, नाले, पोखर, पतियों की झुरझुराहट, उदास रूठा चांद और एक
अनागत के आने के इंतज़ार में देहारी पर बैठी बहुरिया के व्याकुल मन की
छटपटाहट आदि भाव- छटांए विविध रंगों-बिंबों में एक कायनात के नीचे
देखना-पढ़ना हो तो पद्मा सचदेवा की डोगरी रूबाइयों की स्वयं कवयित्री द्वारा
हिंदी में अनुदित ‘तेरी बातें ही सुनाने आये’ पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए। चार
पंक्तियों में जीवन के फल्सफ़ा बयां करना कोई आसान काम नहीं है। इन चार
पंक्तियों की रूबाइयों को दूसरे षब्दों में कहें तो वह जीवन के चार प्रहर
हैं। मसलन, बाल-अवस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था ऋषियों ने
जिसे चार आश्रम के नाम से भी बांटा है ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम,
वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम की वृहद जीवनानुभव को पद्मा जी ने अपनी
रूबाइयों में बख़ुबी जीया और रचा है। उनके लिए बाह्य प्रकृति जितना अहम है
उतना ही अंतर प्रकृति भी महत्वपूर्ण है। इन्होंने पहाड़, नदियों, वृक्षों के
साथ साहचर्य स्थापित तो किया ही है साथ ही उनके साथ जीए हुए पलों को ताउम्र
अपनी थाती के तौर पर संजोकर रखना और बांटना भी जानती हैं। इन्होंने षब्दों,
अक्षरों की दुनिया की झांकी भी दिखाया है। पद्मा जी की चमुख को डोगरी में
विरचित पद्यों को देखकर दिनकर जी विस्फारित हो गए थे। उन्होंने इनकी
रूबाइयों को पढ़कर कहा था ‘गाथा को आर्या बनाने में जो मुसीबत गाोवर्धन को
झेलनी पड़ी थी, डोगरी को हिंदी में ढालने वालों की मुसीबत उससे ज़रा भी कम
नहीं है।’ बतौर पद्मा जी, अनुवाद से मुझे बड़ा सुख मिलता है। साथ ही परकाया
प्रवेष से मुझे बड़ा सुख मिलता है। अपनी रूबाइयों के बारे कहती हैं कि डोगरी
में रूबाइयों को चमुख कहा जाता है। यानी चार मुंह या चार ज्योतियों वाला
दीपक। पद्मा जी का प्रकृति के साथ रिष्ता बड़ा ही निराला है। चांद, आसमान,
सूर्य, तारे, पहाड़, सब के सब इनसे बतियाते हैं और ये उनसे। कभी उन्हें ये
फटकारती भी हैं तो कभी प्यार से उलाहने भी देती हैं। इनकी बतकही तमाम
रूबाइयों में बिखरी हुई हैं। इन रूबाइयों से गुजरते हुए कई दफ़ा एहसास होता
है कि कवयित्री किसी सामने बैठी सखि या दोस्त से अपनी बात कह सुन रही हैं।
कहीं कहीं महादेवी वर्मा की तरह किसी अनागत की प्रतीक्षा में घर आंगन बुहार
कर, दीप जलाए देहारी पर बैठी इंतज़ार में हैं। गोया बतौर महादेवी जी ‘जो तुम
आ जाते इक बार कितनी करूणा कितने संदेष पथ में बिछ जाते बन पराग’। पद्मा जी
की रूबाइयों में कुछ यूं है – सारा घर मैंने बुहारा है अभी/ ताज़ी मिट्टी से
संवारा है अभी/ कुओं से सोते से भर भर आया है मन/ प्यासी नदियों का किनारा
है अभी। कई बार इन रूबाइयों को पढ़ना जैसे कभी अंबिकादत्त व्यास विरचित
षिवराज विजय की पहली पंक्ति याद आती है- ‘रे रे चातक सावधान मनसा/
मित्रक्ष्णम श्रुयताम् अंबो दा बहवो बसंती गगने’ चातक को ताकीद करती ये
संस्कृत के ष्लोक भी परोक्ष ही सही किंतु यत्र तत्र मिल जाते हैं। तो कहीं
कबीर की साखियों की झलक भी मिलती है जैसे ‘गावहुं सखि मंगलचार/ आजु आए मोरे
राम भरतार’ इसी सरीखे भाव प्रवण रूबाई इस संग्रह में मिलती है- बरसो मुई
पाहुने घर आए हैं/ आंखों के सरवर बड़े धुंधलाए हैं/ इनको भरते भरते देर होगी
ही/ राखी पर आये हुए मां जाए हैं।
रूबाइयों ऐसी हैं कि पढ़ते वक्त ज़रा भी इस बात का इल्म नहीं होता कि हम
डोगरी मूल की चैमुख को हिंदी के झरोखे से देख पढ़ रहे हैं। ‘टूट कर बरसो कि
जल-थल होने दो/ धरती को मल मल नहाने दो/ आसमां से मिलन घड़ी आई है।’ जगह जगह
पेड़, पोखर, पत्ते, चिडिया फुदकती मिलेंगी। पक्षी तो आकाष में पर तोलता/
बादलों में रह हवा संग बोलता/ बैठा है कलियों के बंद घेरे में/ फूल खिलता
पंख सारे खोलते। कई बार महसूस होता है कि कवयित्री को चांद से कुछ ख़ास ही
रागात्मक लगाव है। कभी तो ‘चांद मारा इसको चांद की अदाओं ने’ अदाओं का खान
लगता है। तो कभी ‘‘ तुझे देख कभी कम हुआ न चाव/ खेल कर देखा है एक-एक दावं/
चांद बिन्दी-सा फलक पर झूलता/ झेले हैं उसने भी कैसे-कैसे घाव।’’ चांद से
हुई भूल को पकड़ कर कवयित्री उसे कहे बिना नहीं छोड़तीं, ‘‘ चांद से फिर आज
भूल हो गई/ कैकई-सी रात फिर रूठी रही।/ तेरा आना इस तरफ पक्का न था/ मन
मढ़ैय्या खिल गई क्यूं फूल-सी। वहीं कभी मेरे आंगन में चांद रहता खेलता/ मां
की रसोई में रोटी बेलता/ आसमां पर बैठ चिढ़ाता मुझे/ लेकिन दूसरे पल उन्हें
चांद टूटा-सा लगा करता मुझे/ आसमां फटता हुआ लगता मुझे।’’ पद्मा जी जिस
कुषल षिल्पी की तरह जीवन की बातें सहज और आमफहम भाषा में कह जाती हैं कि कई
बार अपना जीया हुआ सच लगता है। कुछ तो था जो मन में जाकर मर गया/ रात के उन
जंगलों से भर गया/ बछड़ा दूध पीने को मारे था मंुह/ गाय के थनों दूध ही न
था।
रूबाइयों में कवयित्री ने कई नए षब्दों को गढ़ा भी है ताकि अर्थ को व्यापक
समझ मिल सके। वहीं उपमा का भरमार है मसलन सांझ झुसमुसी है कुछ अधजगी-सी,
रात अंधेरी है चुप्पी-सी लगी, अंबरों से लार बहती जा रही/ बरखा रुत सभी ही
को ठगती जा रही। वहीं दूसरी ओर ज़िदगी का उत्तरायण भी देखे जा सकते हैं- खेल
ली दुनिया जिया जीवन-सा छल/ मौत पीछे-पीछे आती चल सो चल/ मैंने भी बहला कर
रक्खा है उसे/ मैं भी करती रहती उससे आजकल।
तेरी बातें ही सुनाने आये