जफा की धूप में अब्र-ए-वफ़ा की शाद रखता हूँ

जफा की धूप में अब्र-ए-वफ़ा की शाद रखता हूँ

इसी तरहा मोहोब्बत का चमन आबाद रखता हूँ

छुपा लेता हूँ मै अक्सर तुम्हारी याद के आंसू

यही थाती बचा कर अब तुम्हारे बाद रखता हूँ

मै अपनी जिंदगी के और ही अंदाज़ रखता हूँ

अना को भूल जाता हूँ फ़ना को याद रखता हूँ

कभी चाहत की धरती पर गजल के बीज बोये थे

फसल शादाब रखने को दिले बर्बाद रखता हूँ

कि उनकी बज्म में हस्ती हमारी बनी रह जाए

कभी मै दाद रखता हूँ कभी इरशाद रखता हूँ

हमारे बीच की अनबन, सुलगती रह गयी ऐसे

कभी वो याद रखते हैं कभी मै याद रखता हूँ

कहाँ से कब नयी मंजिल का रस्ता खोज ले आये

खयालों के परिंदे इस लिए आज़ाद रखता हूँ

अब्र-ए-वफ़ा = वफ़ा के बादल

शादाब= हरा भरा
अना = अहं

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