कुछ बुलन्दी के निशाँ हैं और भी
रास्ते में इम्तिहाॅं हैं और भी
सिर्फ़ मेरे घर पे टूटी बिज़लियाॅं
शहर में कितने मकाॅं हैं और भी
उठ मुसाफ़िर मंज़िलों के वास्ते
करने को सर आस्माॅं हैं और भी
इम्तिहाॅं देकर मुझे ऐसा लगा
बाद इसके इम्तिहाॅं हैं और भी
सिर्फ़ मेरी चुप पे ही इल्ज़ाम क्यूॅं
शहर वाले बेजुबाॅं हैं और भी
नींद मेरी यह उड़ाता ही नही
इशक़ की मनमानियाॅं हैं और भी
बेवफ़ाई बुग्जो-कीना ही नही
पास उसके कैंचियाॅं हैं और भी
आगे आगे राहे-उल्फ़त में ‘विज़य’
बे-सरो सामानियाॅं हैं और भी