दर्द-ए-दिल -संजय कुमार शर्मा “राज़”


“हर दर्द मिटा दूँ तो फिर कैसे जियूँगा मैं,
कुछ दर्द ही तो जीने के सामान हैं मेरे,
कुछ ख़्वाब भी आँखों में मेरे,दिख रहे ज़िन्दा
ये और कुछ नहीं फ़क़त एहसान हैं तेरे,
हाथ में मेंहँदी तेरे और सुर्ख़ तेरे पैरहन,
और क्या हैं मौत के सामान हैं मेरे।”

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