दर्स-ए-उल्फ़त अब किताबों में कहाँ

दर्स-ए-उल्फ़त अब किताबों में कहाँ
प्यार के नग़में निसाबों में कहाँ

तेरी जुल्फ़ों से जो आती है महक
गुलक़दों के इन ग़ुलाबों में कहॅंा

जाग जाये अक़ल तो बेशक भला
रौशनी वर्ना किताबों में कहाँ

ख़त किताबत का ज़माना जब नही
फ़ूल फिर अपनी किताबों में कहाँ

रू-नुमाई का करिशमा देख़िये
अब हया वाले नक़ाबों में कहाँ

फ़र्क कोई आ गया है ऐ ‘विज़य’
शोखियाँ उनके जबाबों में कहाँ

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