“ईश्क़ का मतलब नहीं दीवानग़ी इतनी,
के दौर-ए-ईश्क़ में कोई गुनाह कर बैठूँ,
माहताबों की वफ़ा भी जानता हूँ मैं,
क्यों कहकशाँ का ईश्क़ मैं फनाह कर बैठूँ,
वक़्त भी इतना बुरा आया नहीं मेरा,
के मैं ज़फ़ा के ज़र्फ़ से निबाह कर बैठूँ,
मैं वो नहीं हूँ शख़्स जो वादे पे किसी के,
अल्लाह की दी ज़िंदगी तबाह कर बैठूँ।”
आदमी हूँ “राज़” मुझमें इतनी ताक़त है,
के ईश्क़ को ही मैं खु़दा वल्लाह कर बैठूँ।