ग़ज़ल — डा० रंजन विशादा


हुस्न पर तेरे सरे आम ग़ज़ल पढ़ता हूँ।
चाहता हूँ मैं इक मुकाम ग़ज़ल पढ़ता हूँ।
तूने क्या झाँक लिया एक दिन झरोखे से,
हर सूँ आहें उठी तमाम ग़ज़ल पढ़ता हूँ।
देखता हूँ मैं तुझे दिन में इसी ख़्वाहिश से,
साथ बीतेगी कभी शाम ग़ज़ल पढ़ता हूँ।
क्यों कोई तोहमतें लगाये दूसरों पे भला,
कहता हूँ बनके खुद हमाम ग़ज़ल पढ़ता हूँ।
खाते हैं देश और गाते है विदेशों की,
ऐसे कुछ हैं नमक हराम ग़ज़ल पढ़ता हूँ।
नाज़नीनों से दूरिया बनाए रखना ‘विशद’,
कहीं लग जाए न इल्जाम ग़ज़ल पढ़ता हूँ।

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