इतना सुन्दर तन-मन पाया ,इससे दुनियांदारी मत कर,
फ़न देकर फ़नकार बनाया फ़न से तो फ़नकारी मत कर।
तेरी, मेरी सबकी काया प्रभु का अनुपम रूप समाया,
काबे में जो , काशी में वो, उससे तो मक्कारी मत कर।
राम सभी के पालनकर्ता सेवक हम वो कर्ता-धर्ता,
तेरा भी नम्बर आयेगा, मुफ़्त की नम्बरदारी मत कर।
इतना बोझा क्यों ढोता है, तेरे सोचे क्या होता है,
जो तुझ पर हावी हो जाए, मन को इतना भारी मत कर।
रह जाएगा मेला - ठेला, उड जाए जब हंस अकेला,
इस मेले की चकाचौंध में , घुसने की तैयारी मत कर ।
तू मन्दिर वो मस्ज़िद कहता ,लेकिन सब में वो ही रहता,
मन के भीतर दैर-ओ-हरम हैं, उन पर तो बमबारी मत कर।
तू जो सांसें लेकर आया, उन से केवल कुफ़्र कमाया
जुदा खुदा से करे “आरसी” तू ऐसी हुशियारी मत कर।
आर० सी० शर्मा “आरसी”