तू एक झूट जो अब तक हुआ ज़लील नहीं
मैं एक सच हूँ पर इसकी कोई दलील नहीं
शुरूअ होके तुम्ही से तुम्ही पे खत्म हुई
मिरे खयाल की दुनिया बहुत तवील नहीं
ग़लत पते पे चली आई तेरी खुशफहमी
यहाँ तो अश्क की नदियाँ हैं कोई झील नहीं
कतर दें हिस्सा वो,जो दिल को नापसंद लगे
अमा ये ज़ीस्त कोई कैमरे की रील नहीं
हर एक बात सुबूतों के साथ कैसे कहूँ
मिरा मिज़ाज सुखनवर है मैं वकील नहीं
तो क्या ये समझें कि बस्ती में सब सलामत हैं
अब असमान में मंडराते गिद्ध-ओ -चील नहीं
………………….. Irshad Khan Sikandar …………………