प्रेम के सुर


प्रेम के सुर छेड़ती, वीणा ही पाए दिव्यता
है कटिन फिर भी तो इस, संगीत की आराधना

काल के पहिये की लय पर चल रही है जिन्दगी
थिरकती आकाश गंगा और पृथ्वी की धुरी
ब्रहम भी करता नहीं, इस तत्य की अवमानना ....

इस अखिल ब्रहमांड का विस्तार भी है इक कला
धरम ने युग युग से चाहा है कलानिधी का पता
सत्य और इश्वर को पाना, धरम की है देशना......

आस्था के मार्ग पर आने का ही परिणाम है
कर्म योगी के कर्म में पुण्य है विश्राम है
प्राण में बहने ने लगी ज्यों, ईश की शुभकामना .......
हेमंत त्रिवेदी [अमन]

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