प्रेम की संवेदना पाकर ,जिन्दगी में न्रत्य जागा है i
कह के भी में कह नहीं पाऊं ,ये मेरा अनुभब अछूता है

मन की वीणा को किया झंक्रत, आपका स्पर्ष अद्भुत है
ये मिलन की है नवल बेला, प्रेम करने की नयी रुत है
आज जाना भेद ये मैंने, बूंद में सागर समाया है

सत्य शव्दों में में नहीं आता ,कोई कैसे तुमको बतलाये
जानने बाला बताओ तो, भेद इसका कैसे समझाए
जो भी इन शव्दों में उलझा है, उसने ही जीवन गवाया है

आपकी कृपा को पाकर के, बीज अंकुर में हुआ परणित
था अपरचित खुद से पहले मैं ,और अब होने लगा परचित
आपके ये ऋण चुकाने को मैंने, भी खुद को मिटाया है


हेमंत त्रिवेदी [अमन ]

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