बेमतलब के रिश्ते


(कहानी)
" मिस रमा मैं आपसे कुछ अपने बारे में बात करना चाहती हूँ."
सिर उठाकर देखा तो सामने क्रिस्टी खडी थी, आँखों में कुछ उलझन के साए, आवाज में एक नाउम्मीदी, और चाल में कुछ सुस्ती, जो मैं पिछले कई दिनों से देख रही थी उसके चलन में.
क्रस्टी मेरी असिस्टँट टीचर है, दो साल से मेरे साथ है. मुझे यह पता है कि उसकी दो बडी लडकियाँ हैं, जिनकी उम्र १७ ओर १५ साल है, एक लडका जो १२ साल का है. पत्ती से तलाक हो गया है, वह पढाई भी करती है और नौकरी भी. यह चलन अमेरिका में बहुत ही साधारण बात है, हाँ शुरू शुरू में चकित होने के सँभावना ज्यादा रहती थी, दिमाग पर अनचाहा जोर लगाने की कोशिश हम हिंदुस्तानियों को रहती है, पर आहिस्ता आहिस्ता उसी रौ में बह जाते है, जहाँ कुछ ज्यादा सोचना बेकार सा लगता है.
"बैठो क्रिस्टी और बताओ क्या बात है?" मैंने अपनेपन से उसका हाथ पकड़ते हुए कहा. कुर्सी पर बैठते हुए उसने कहा " रमा शुड आइ हैव अनदर बेबी? आपकी क्या राय है इस के बारे मैं यह मैं जानना चाहती हूँ."
अचानक इस सवाल ने मूझे चौंका दिया. क्रस्टी ३५ साल की जवाँ औरत, न्यू यार्क में पली बडी, अभी तीन बच्चों की माँ, और मैं हिन्दुस्तान कि पैदाइश, वहाँ की बुलँदियों से वाकिफ आज यहाँ अपने परिवार के साथ रहकर भी अपनी सँस्क्रुति को अपना दाइरा मानकर चलने वाली, अपने परिवार के सदस्यों से भी यही उम्मीद व आस मन में धर कर बढती रहती हूँ. हमारे सँस्कार हमारी नींव हैं जिनकी जडें बहुत मजबूत है, शायद इसी लिये आसानी से यहाँ की रौशन राहें जल्दी से हमें गुमराह नहीं कर पाती हैं. बिजली की रफ्तार से कुछ सवाल, कुछ जवाब ख्याल बन कर मेरे मन में उमडने लगे.
"उस बच्चे का बाप कौन होगा?" मैंने पूछा.
"मै बाय फ्रेंड " बहुत ही सरलता से कहते हुए उसने ये भी बताया की पिछले तीन सालों से उसका संबंध रहा है उसके साथ.
"यह उसकी इच्छा है या तुम्हारी?" मैंने उसकी आँखों में आँखें डालते हुए पूछा.
"मेरी" कहकर वह मेरे उत्तर का शायद इन्तजार करने लगी.
"बच्चा होने पर क्या वह एक बाप होने की जवाबदारी लेगा? क्या वह तुमसे बच्चा पैदा होने के पहले शादी करेगा?" मैंने एक साथ सारे सवाल पूछे लिये. शच तो यह है कि मैं सोचों के समुँदर में अपनी उलझन के साथ बहती जा रही थी. कभी इस तरह की परिस्थिती का सामना हुआ नहीं, और सोच का सिलसिला टूटा क्रस्टी की आवाज़ से.
"रमा शादी करना कोई ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है, और ना ही मैं ये उम्मीद रखती हूँ कि वह मेरे इस बच्चे का बाप बनता फिरे या मेरा पत्ती. मैं आजाद हूँ, आजाद रहना चाहती हूँ, कोई नया बँधन मुझे जकडे़ यह मुझे मँजूर नहीं. जहाँ मैं तीन बच्चों को पाल सकती हूँ तो ऍक और भी सँभाल लूँगी. मैं आपसे यह जानना चाहती हूँ कि क्या यह मेरे लिये ठीक होगा? और आपकी अपनी राय क्या है इस बारे में, क्योंकि हिँदुस्तान की परँपराओं के बारे में मैं बहुत कुछ सुन चुकी हूँ, आपके साथ से भी काफी मुतासिर हूं, जैसे आप अकेले होते हुए भी परिवार से जुड़ी हुई हैं, तो लगा कि यह जान लूँ कि आप की सोच इस बारे में क्या है?"
"क्रस्टी यह विषय नाजुक है और इसका सँबँध जुडता है सीधे माँ से, चाहे वह हिँदुस्तान में हो या यहाँ पर. गर बच्चा होगा तो वह तुम्हारे शरीर का हिस्सा ही होगा और सँबँध भी तुम्हारा उसके साथ गहरा होगा क्योंकि तुम माँ हो, और सदा रहोगी. पर क्या तुम्हारे तीनों बच्चे उस नये शिशू को अपना पायेंगे, यह सोचना और समय की अनुकूलता के हिसाब से फैसला जो भी करोगी वह तुम्हारा अपना होगा. एक कदम आगे बढाने के लिये तुम तीन कदम का फासला पीछे नहीं छोडना चाहोगी. दूसरी बात अगर जिँदगी में कहीं आगे चलकर तुम्हारे किसी बच्चे ने यही कदम उठाया तो माँ होकर भी उन्हें कोई सलाह या रहबरी न दे पाओगी, शायद तुम्हारी कोई भी बात उन्हें माननीय ही न लगे तो तुम्हें उस वक्त बुरा जरूर लगेगा. एक नई कडी जोड के एक नया रिशता जोडने के लिये तुम अनेक पुराने रिशतों की जडों को कमजोर करने की राह खोल रही हो, फैसला तुम्हें करना है क्योंकि जिँदगी तुम्हारी है, पर तुम्हारी जिँदगी से जुडे तुम्हारे ही बच्चे किसकी जवाबदारी है?" मैंने बहाव मेँ कहते हुए उसकी ओर देखा तो पाया वह गँभीरता से मेरी हर बात सुन रही थी.
" क्रस्टी तुम बहुत ही सोच समझ कर, उसके बाद जो दिल कहे वही करो, जो भी फैसला करोगी उसके अच्छे व बुरे नतीजे के दौर से फिर भी तुम अकेली ही गुजरोगी. इसलिये जो भी करो ठँडे दिमाग से सोच समझ कर करो. कभी कभी रिश्ते बनाने में हम जितनी जल्द बाज़ी कर बैठते है, जो बाद में समय आने पर खुद से भी निभा नहीं पाते. अगर उनकी अहमियत हमारे स्वार्थ को पूरा करती है तो फिर ऐसे रिशते सिर्फ रस्मों की तरह बन जाते है, जहाँ भावनांएं कोई महत्व नहीं रखती और बिना भाव के रिश्तों की कोई बुनियाद ही नहीं होती. अब तुम अपने आप से पूछो और हर उस सवाल का उत्तर अपने अँदर की गहराइयों को टटोलकर पा लो."
ऐसा कहकर मैं चुप हो गई, पर मेरे मन की मैना चँचल चितवन में कुछ और कहे जा रही थी जो मैं अच्छी तरह से सुन रही थी.
साराँश यह है "आजाद देश के आजाद लोगों को हर तरह की आजादी है, पर आजादी का सही इस्तेमाल करना पाबँदी के दाइरे में होता है. जंजीरों की जकडन से आज़ाद होकर हम फिर भी कितने गुलाम रहते हैं, अपनी खाइशों के, अपने मन की आशाओं और आकाँशाओं के, और इसी आजादी की कीमत भी हम उतनी ही बडी चुकाऍँगे, अपने ही अस्तित्व की चट्टान पर चोटें खाकर. आजादी का दूसरा छोर है बँधन, और बँधन की परिधी में रहकर जो आजादी हम इस्तेमाल करते है, चाहे वह शरीर से जुडी हो या मन से, वह हमे अच्छे बुरे तजुरबों से सजा जाती है. रिश्तों का दाइरा जितना विशाल, जकडन उतनी ही मजबूत होगी और जाल में होता है मन, जो बे पर के पँछी की तरह फडफडाता है, पर अपनी ही बेबसी के बुने जाल में घायल व लहूलुहान होकर रह जाता है, तब जाकर उसे आजादी का सही मतलब समझ आता है.
" समझ समझ कर समझ को समझना भी एक समझ है
जो इतना समझाने पर भी ना समझे वो मेरी समझ में ना समझ है."
बहुत गलत होने से तकरीबन कुछ सही होना बेहतर है. तकदीर तकदीर कहकर कोई जवाबदारी से मुक्त नहीं हो जाता है क्योंकि तकदीर तो पानी का एक रेला है जो बहता रहता है,जिसे कोई रोक भी नहीं पाया है. पर तदबीर एक ऐसा हथियार है जिसे हम अपनी सही सोच , सुलझे हुऐ ज़मीर के हौसलों से खुद सँवार सकते है, निखार सकते हैं, अपनी तकदीर को एक नई दिशा दे सकते हैं, ठीक उसी तरह जैसे कोई शिल्पकार अपनी कला के हुनर से शिला का सीना चीरकर, पत्थर में जान फू्क देता है. अगर कोई बुराइयों से आगाह करे तो वह सच्चा दोस्त ही हो सकता है, पर इन सब से महत्वपूर्ण बात है सही रिशतों की पहचान, जो भाँति भाँति के इँद्रधनुषी रँगों से हमारी जिँदगी को रँगीन बनाकर कभी तो सँवारने का काम करती हैं तो कभी बिखराव का बहाना भी. कभी नफरत से, कभी गरज से, तो कभी खुदगर्जी से, नित नये रूप धरण कर लेते है रिशते. इन रिश्तों के बीच रहकर, हर दौर से गुजरने के बाद ही तजुर्बों का अँजन पहन कर कुछ साफ देख सकते हैं. तजुर्बा कोई मुफ्त में मिलने वाली चीज तो है नहीं, उसके लिये वक्त और उम्र गुजारनी पडती है, हर रिश्ते से जूझते जूझते उन जँजीरों से आजाद होना पड़ता है और फिर एक नया रिश्ता जोडना पडता है अपने आप से. अपने मन की हर गाँठ को खोलना पडता है, दोस्ती करनी पडती है खुद से, जब ये सब आवरण उतर जाते हैं तो हमें अपना सही रूप दिखाई देता है. उसीके साथ जुडकर हम एक नया बुलँद रिश्ता कायम करने की चेष्टा करते है जिसकी नींव हर मतलब से परे होती है और यही बेमतलब का रिश्ता हमें हमारी असली मंजिल की ओर ले जाता है.
अब आप पढकर खुद यह विचार करें कि आप किस रिश्ते को महत्व देंगे और किस किस को नहीं, स्वार्थहीन होकर फैसला करें.
देवी नागरानी
२० दिसंबर २००१

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