आॅफिस पहुँचकर मेरी टेबल में आधी घुसी कुर्सी को खींचकर मैं इतमीनान से
बैठ गया। गत दस वर्षों से मैं इसी टेबल-कुर्सी को प्रयुक्त करता था। अब तो
यह मुझे अपनी निजी सम्पत्ति जैसी लगती थी। रोज प्रयुक्त करते-करते आदमी जड़
वस्तुओं से भी कितना पॅजेजिव हो जाता है।
जून की झुलसा देने वाली गर्मी में भी मैं घर से पैदल चल कर आया था। घर यहाँ
से एक किलोमीटर दूर था। मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी तो नहीं थी कि मैं स्कूटर
पर नहीं आ सकता, पर रास्ते की भीड़-भाड़ एवं सेहत के लिए पैदल चलना अच्छा है,
यह सोचकर मैं सदैव पैदल ही आता था। मेरी अंतर्निहित भावना पेट्रोल की बचत
की भी रही हो तो क्या बुरा है। मैं कौन-सा रईस था। इसी बैंक में गत दस
वर्षों से क्लर्क था। मेरी नौकरी ही हमारे परिवार का जीवन आसरा थी।
मैंने रुमाल से पसीना पोंछा एवं रुमाल को कुछ देर के लिए कमीज की काॅलर के
अन्दर फैलाकर लगा दिया। श्रीमतीजी कपड़े धोते वक्त अक्सर ताने मारती, ‘‘पता
नहीं तुम्हारी काॅलर इतनी गन्दी क्यों होती है? बैंक में काम करने जाते हो
या किसी हलवाई के यहाँ मिठाई बनाने?’’
सामने दीवार पर लगी घड़ी में पौने दस बजे थे। नियमानुसार हमें पौने दस बजे
पहुँचना होता था ताकि पन्द्रह मिनट तक आवष्यक तैयारी कर पब्लिक का कार्य दस
बजे तक प्रारंभ कर दिया जाय। सरकार की सोच तो युक्तिसंगत थी पर नियमों को
अंजाम तो आदमी ही देता है। बहरहाल अभी बैंक में मैं और एक चपरासी दो ही लोग
पहुँचे थे। चपरासी को सफाई करने हमेषा एक घण्टे पूर्व आना होता था। बाकी
सारा स्टाफ सवा दस बजे तक आता था। मैं भी चाहता तो देरी से आ सकता था। अब
तक मैं भी सीनियर था एवं मुझे कोई कहने वाला नहीं था तथापि समय पर पहुँचने
में मुझे एक आत्मिक संतोष होता था। पिताजी की सीख मैंने गाँठ बांँध ली
थी-‘‘जो समय की कद्र नहीं करता, एक दिन समय भी उसकी कद्र नहीं करता।’’
हालांकि इस सिद्धान्त पर जीने में मुझे आॅफिस में कभी फायदा नहीं हुआ वरन्
साथी कर्मचारियों के व्यंग्य भरे ताने सुनने को मिलते, ‘‘बीवी घर पर काटती
है क्या? मैनेजमेन्ट की चमचागिरी करके क्या कोई पदक लेना है?’’ एक बार तो
जल्दी आने के चक्कर में मैं फंस गया। एक चपरासी ने जिसे बाद में बैंक ने
नौकरी से निकाल दिया था, कोई गबन कर लिया। उसने कुछ चैक चोरी कर उनका
भुगतान प्राप्त कर लिया था। हैड आॅफिस ने उन लोगों की सूची मंगवाई जो शाखा
में सबसे पहले आते हैं अथवा रात देरी तक बैठते हैं। तब स्टाफ वालों ने ही
मैनेजर पर दबाव बनाया था कि, ‘‘हेडा साहब की ईमानदारी असंदिग्ध है एवं इनका
नाम किसी हालत में हैड आॅफिस नहीं जाना चाहिए।’’ मेरा नाम तो हेड हाॅफिस
नहीं गया पर स्टाफ वालों ने खूब चटकारे लिए। इतना होने पर भी मैंने
समयबद्धता का गुण नहीं छोड़ा। बैंक आता तो समय पर ही आता अन्यथा अवकाष ले
लेता।
बैंक में वर्षों काम करते-करते जीवन एक ढर्रा मात्र हो गया था। सुबह आते ही
वही चरखा शुरु। लोग हाय-हाय करते भागे आ रहे हैं, सबको जल्दी पड़ी है। कोई
चैक जमा करा रहा है, कोई खाते का बेलेन्श देख रहा है, कोई रोकड़ जमा करवा
रहा है तो किसी को रुपये निकलवाने हैं। रोज एक दो ग्राहकों से खटपट हो
जाती। ये सभी बातें दिनचर्या का हिस्सा थी, ग्राहक मरे हमारी बला से। जिस
उमंग और उत्साह से जन-सेवा होनी चाहिए, वो तो ऐसे नदारद थी जैसे गधे के सिर
से सींग। एक ही प्रकार का कार्य करते-करते जीवन कई बार नीरस, निरानंद हो
जाता है। कभी-कभी तो लगता फाईलों को समुद्र में फैंक दूँ। अंतहीन कार्य कभी
रुकने का नाम नहीं लेता।
हमारे स्टाफ में मैनेजर एवं डिप्टी मैनेजर को छोड़कर हम आठ क्लर्क एवं दो
चपरासी थे। सारा काम तो हम लोग ही करते, मैनेजर तो सिर्फ चिड़ियाँ बिठाता
था। रात-दिन एक ही बात करता, ‘‘मैनेजरी भगवान अगले जन्म में भी नहीं दे।
उफ! कितना तनाव भरा जीवन है।’’ मैं मन ही मन कहता, ‘‘अगले जनम में तू बाबू
बनके देखना, पसीने छूट जाएंगे।’’ साला हरामखोर, कामधाम करता नहीं फिर भी
रोता रहता है। अफसरी में तो चाँदी है। दिन भर पब्लिक से गप्पें मारो, चाय
सिगरेट फँूको एवं क्लर्कों के काम में मीन मेख निकालो। कैसा स्वर्गिक सुख
है। कैबिन मैं कोई बैठा हो तो मैनेजर ज्यादा ही गलती निकालता है जैसे जताना
चाहता हो कि सारी अकल उसी में है एवं बाबुओं की कौम कभी नहीं सुधर सकती।
दिवाली पर उपहार भी सबसे ज्यादा लेता है। यहाँ राह तकते आँखें थक जाती है,
कोई मिठाई का डिब्बा भी नजर नहीं करता। क्लर्क तो जैसे कोल्हू पीसने को ही
पैदा हुए है। अफसरों की फूँक तो ट्रांसफर से ही निकलती है, तभी इनकी टें
बोलती है। तब, मारे-मारे सिफारिष ढूंढते फिरते हैं।
सभी क्लर्क एवं चपरासी बैंक में अवार्ड स्टाफ कहलाते है। अवार्ड स्टाफ
हमारी शाखा में दो भागों में विभक्त था। एक ग्रुप में मैं, त्रिवेदी, नट्टू
भाई एवं अखिलेष तथा बाकी सभी अन्य ग्रुप में थे। लंच हम सभी अपने-अपने
ग्रुप में करते। काॅमन हित की बात आती तो सभी साथ हो जाते वरन् दो कव्वालों
के ग्रुप की तरह एक दूसरे पर छींटाकषी भी करते। मैनेजर इसका भरपूर फायदा
उठाता। त्रिवेदी हम सबका नेता था पर उसमें इतना दमखम नहीं था कि मैनेजर की
गर्दन पर सवार हो सके। हाँ, वह नियमों को जानता था एवं कानून का कीड़ा था।
बाकी सबको अपनी-अपनी पड़ी थी, अतः हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं था। हमारी
इस कमजोरी से हमारा ही शोषण होता था पर हमारी स्थिति उन कुत्तों की तरह थी
जिनके मौहल्ले में नया कुत्ता आता है तो सभी काटने को दौड़ते है एवं उसके
जाने के बाद सब आपसे में लड़ने लग जाते हैं।
अवार्ड स्टाफ में सभी का विषेषकर हमारे ग्रुप के तो ड्रेसिंग सेंस का बुरा
हाल था। स्पीच सेंस उससे भी बेकार था। नट्टू भाई के तो जबान पर गालियाँ चढ़ी
रहती। कोई औरत आती तो उसे घूर कर देखता रहता। उसके बैंक से जाते ही ऐसा
भद्दा मजाक बनाता कि मैं तो कानों पर अंगुलियां रख लेता। त्रिवेदी जबान का
तो बुरा नहीं था पर कपड़े ऐसे पहनता जैसे कार्टून हो। मैंने उसे आज तक सूट
एवं टाई पहने नहीं देखा। तीन-चार रोज तक एक ही ड्रेस पहनता, पता नहीं रोज
नहाता भी था या नहीं। सर के बाल हमेषा छितराये रहते। अखिलेष को हर आधे
घण्टे में जरदे की बीमारी थी। मुँह को लम्बा करके पिचकारियाँ छोड़ता रहता।
उससे बात करो तो पान के छींटे सामने वाले के कपड़ों पर लग जाते। सभी उसे दूर
से सलाम करते। दीवारों पर खुद थूकता रहता था पर नाम पार्टियों का लेता।
मेरा ड्रेसिंग व स्पीच संेस इन सबसे तो अच्छा था पर स्थिति अंधों में काना
राजा वाली थी। कुल मिलाकर हम सभी गंदे तालाब की मछलियाँ थी। किसी के जीवन
में विनय, षिष्टता एवं उल्लास नजर नहीं आता था। मीटिंग में जब कभी ड्रेस
सेंस या स्पीच सेंस की बात होती तो बाहर आकर सब यही कहते, ‘‘हमें कौन-सा
ब्याह करना है। मैनेजर डायरेक्ट आॅफिसर है, जवान है, कुँआरा है, सत्ताईस
वर्ष का स्मार्ट आदमी है- सजा करे हमारी बला से।’’
कहते हैं हर बारह साल में घूरे के दिन भी बदल जाते हैं। आज जो कुछ मैंने
देखा-सुना उससे तो इसी बात की पुष्टि होती है। सुबह ग्यारह बजे जब हम सभी
काम में मषगूल थे, आॅफिस में एक हसीन तूफान आया। एक लड़की जो मुष्किल से
24-25 वर्ष की रही होगी, ने बैंक में प्रवेष किया। बला की खूबसूरत थी वह।
कृषांगी शरीर, खिला गोरा रंग, अभिमान-भरी चाल एवं बिजलियों-सा तब्बस्सुम
लिये उसने मैनेजर के कैबिन का दरवाजा खोला एवं अन्दर आकर हाथ मिलाकर अपना
नियुक्ति-पत्र दिया। उसके पोर-पोर से ष्ष्टिता एवं चेहरे से आत्म-विष्वास
झलक रहा था। हम सभी स्तंभित रह गए। नट्टू भाई के होठ खुले रह गए, अखिलेष की
पलकों ने झपकना बंद कर दिया। काउंटर से हम सभी उचक-उचक कर उसे देख रहे थे।
मैनेजर ने उसे चाय पिलाई, फिर त्रिवेदी को अन्दर बुलाकर कहा, ‘‘आप माधुरी
बावेजा है, हमारे यहाँ नयी नियुक्ति हुई हैं। अवार्ड स्टाफ में एक और इज़ाफा
हुआ है। आपने एम.ए. (अर्थषास्त्र) में किया है, भोपाल से आई हैं एवं यहाँ
किराये के मकान में रहेंगी। आप अपनी टीम में इन्हें शामिल करें एवं इनको एक
कमरा बैंक के नजदीक दिलवाने में मदद करें। इनका परिचय भी सभी से करवा दें
तथा कल से इन्हें सेविंग काउंटर दे दें, वैसे इन्हें कम्प्यूटर का भी विषेष
ज्ञान है।’’
त्रिवेदी, माधुरी के साथ कैबिन से बाहर निकला तब ऐसा लग रहा था जैसे किसी
राजकुमारी के साथ छत्र धारण करने वाला मातहत चल रहा हो। माधुरी की चाल
देखते ही बनती थी। हल्के हरे रंग की सिल्क की साड़ी में वह खूब जम रही थी।
कानों में मोती के बुंदें पहने थी। ऊँची हील के सैंडिल पहने
लचकती-मुस्कराती नाजनीन की तरह वह हाॅल में आई। त्रिवेदी सबसे पहले मुझसे
मिलाने लाया-‘‘हलो! हाऊ आर यू? मेरा नाम माधुरी है!’’ यह कहकर उसने हाथ आगे
बढ़ाया। मैं अभी तक हाथ जोड़े खड़ा था।
‘‘कम ओन, डोंट बी शाई!’’ उसने हाथ और आगे बढ़ाया। उससे हाथ मिलाते वक्त मुझे
लगा मैं पसीने से भीग गया हूँ। वह कितनी ताजगी, स्फूर्ति एवं आत्मविष्वास
से भरी थी। कितनी बेतकल्लुफ। उसके हाथ कितने कोमल थे एवं पकड़ कितनी दृढ़।
इसी तरह एक-एक कर उसने सभी से हाथ मिलाकर अपना परिचय दिया। नट्टू भाई तो
ऐसे देख रहा था जैसे कच्चा खा जाएगा पर माधुरी ने भृकुटियाँ उठाई तो वह
भीतर तक काँप गया। अखिलेष ने तो मिलने के पहले मुँह में रखा सारा जरदा
डस्टबिन में थूका। कुल मिलाकर माधुरी ने पहले ही दिन अपना सिक्का जमा लिया।
धीरे-धीरे शाखा में क्रांतिकारी परिवर्तन आए। त्रिवेदी जो कभी ढंग के कपड़े
नहीं पहनता था, अब टाई लगाकर आने लगा। उसके शर्ट-पेन्ट मैचिंग करने लगे।
पहले लाल शर्ट के नीचे ब्ल्यू पेन्ट पहनकर आता था, शर्ट की बाँहें चढ़ी होती
थी। कई बार तो स्लीपर पहन कर आ जाता। लेकिन अब वह लाल शर्ट के नीचे काली
पेन्ट पहनकर आता अथवा ब्ल्यू शर्ट के नीचे डार्क नेवी ब्ल्यू पेन्ट पहनता।
मिस माधुरी के आने के बाद मैंने उसे कभी बिना जूतों के नहीं देखा। नट्टू
भाई की गालियाँ एवं भद्दी मजाकें बंद हो गई, अखिलेष का जरदा छूट गया। सभी
के ड्रेस सेंस एवं स्पीच सेंस में आमूलचूल परिवर्तन आया। सबसे बड़ा आष्चर्य
तो यह था कि हम सबका अवकाष लेना कम हो गया। मुझे कई बार लगता जैसे किसी बाल
सुधार गृह में एक नई अध्यापिका आई हो। जिस काम को करने के लिए मैनेजर कह-कह
कर थक गया, वही काम मिस माधुरी के आने के बाद सहज ही में हो गए।
सुबह हम सभी उसका बेताबी से इन्तजार करते। उसके आते ही सबके अंतःकरण खिल
जाते। उसका विकसित मुखमण्डल, अरुण नेत्र, लम्बे काले केष एवं तीखे तेवर
जानलेवा होते। इतनी सुरक्षित एवं विलक्षण प्रतिभा से भरी होने पर भी वह
शुद्ध भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण नजर आती। कुछ ही समय में वह न सिर्फ
अपना काम समझ गई वरन् कई बातों में हमें राय तक देने लगी। कुल मिलाकर उसका
रूप, उसका व्यक्तित्व एवं चाल-ढाल सब पर जादू-सा असर कर गया।
पहले उसने लंच हमारे ग्रुप के साथ ही लेना आरंभ किया। दूसरे ग्रुप के लोग
हमें टुकुर-टुकुर देखते। उन्हें तकते देख हमारी छाती तन जाती। हमारे सगर्व
चेहरे उन्हें एक मूक संदेष भेजते...... इसे कहते हंै लड़की पटाना। हम दूसरे
ग्रुप को विजित भाव से देखते। प्लास्टिक के टिफिन की जगह अब चमकते स्टील के
टिफिन आने लगे। कोई पुलाव लाता तो कोई कवाब, कोई शाही पनीर तो कोई क्या।
मिस माधुरी जिसकी तारीफ कर देती वह निहाल हो जाता।
एक दिन लंच पर हम सभी उसका इंतजार कर रहे थे। सभी की नजरें बिछी थी। एक
निषंक, निद्र्वंद्व मानिनी की तरह वह चलकर हमारे ग्रुप में आई फिर न जाने
क्या सोचकर दूसरे ग्रुप में चली गई। हमें लगा हमारे मुँह से कोई निवाला छीन
ले गया। उधर सबके हृदय में गुदगुदी मची थी, इधर हम छाती पीट रहे थे। उस दिन
मुझे महाकवि तुलसीदास की एक चैपाई का अर्थ जड़ से समझ में आया- ‘नारि चरित
जलनिधि अवगाहू।’ सभी ने इस कठोर दृष्य को अपनी आँखों से देखा पर उसे
पुकारने का साहस किसमें था? वह सबको आकर्षित करती एवं साथ ही लक्ष्मण रेखा
भी खींच देती, हमें हमारी परिधि समझा देती।
आज माधुरी षिफान की साड़ी एवं स्लीवलेस ब्लाउज में गजब ढा रही थी। उसकी सजीव
मुस्कुराती आँखें, कुन्दन-सा दमकता चेहरा एवं चपल गात उसकी सुन्दरता को
द्विगुनित कर रहे थे। वह अपनी सीट पर बैठने जा रही थी कि यकायक एड़ी मुड़ने
से गिर पड़ी। सभी उसको उठाने दौड़े पर यह सौभाग्य नट्टू भाई को मिला। वह लपक
कर पहँुचा। एक हाथ में उसकी कमर एवं दूसरे में उसका हाथ लेकर ऐसे उठाया
मानो चढ़ी हुई पतंग को खिलाड़ी खींच रहा हो। इस दृष्य ने मेरे अंतस की सारी
ईष्र्या को जगा दिया। मैंने अपने आपको बहुत कोसा-अरे हतभाग्य, थोड़ा फुर्ती
नहीं दिखा सकता था। उन कोमल हाथों को खींचकर उसे उठाने को मौका क्या
बार-बार मिलेगा। गिरते हुए उसकी साड़ी पिण्डलियों तक सरक गई। उसके कोमल,
गोरे पाँवों पर चांदी की रुनझुनी पायजेब कितनी सुन्दर लग रही थी। ब्लाउज के
ऊपर के दो बटन खुल जाने से उद्दण्ड वक्ष देखते ही बनते थे। कैसा मदमस्त
दृष्य था मानो कामदेव ने बिना डोरी का धनुष संधान किया हो। उसे उठाते हुए
नट्टू भाई ने कहा, ‘‘माधुरीजी, लगी तो नहीं।’’ मैंने कहा, ‘‘मेडम, यह आँगन
ही कुछ फिसलमा है।’’ माधुरी उठी, एक बेतकल्लुफ अट्टहास किया एवं अपनी सीट
पर जाकर ऐसे बैठ गई मानो कुछ हुआ ही नहीं। वह किसी को सहानुभूति का मौका ही
नहीं देना चाहती थी।
एक बार मिस माधुरी की मैनेजर से भरे हाॅल में कहा-सुनी हो गई। ओह, वह कितना
भाग्यषाली दिन था। उस दिन हमारे सारे ग्रह अनुकूल थे। उस दिन अखिलेष एक
घण्टा देरी से पहुँचा। वह पेमेण्ट की सीट पर बैठता था, अतः अफरातफरी मच गई।
उस दिन दो और क्लर्क अवकाश पर थे। मैनेजर को कुछ देर पेमेन्ट सीट पर बैठना
पड़ा, शायद इसी से जला-भुना था। ज्योंही अखिलेष आया उसने उसे भरे हाॅल में
डाँट दिया। मिस माधुरी अपनी बिरादरी के एक सदस्य का यूँ उपहास होते नहीं
देख सकी। वह निशंक अपनी सीट से उठी एवं मैनेजर सोनी साहब के पास आकर दबंग
आवाज में बोली, ‘‘सर, उसे डाँटने के बजाय आप पहले उनसे देरी से आने का कारण
जान लेते तो अच्छा होता। कितनी ही बार मैंने अखिलेषजी को कार्य समय समाप्त
होने के बाद काम करते देखा है। क्लोजिंग के दिनों में आपके कहने से हम सभी
ने तीन घण्टे अतिरिक्त काम किया। क्या हमने आपसे कोई ओवर टाईम माँगा? फिर
हम भी आपसे हमारी अपरिहार्य परिस्थितियों में क्यों न अच्छे व्यवहार की
अपेक्षा करें। आप हमारे मैनेजर हैं, मालिक नहीं। आप भी बैंक के नौकर हैं,
एक नौकर का दूसरे नौकर पर अहंकार कैसा?’’
शाखा में सन्नाटा छा गया। मिस माधुरी का साहस देखते ही बनता था। सर पर
भवानी सवार थी। बाद में अखिलेष ने बताया कि उसका बच्चा सीढ़िया से गिर गया,
अतः तुरन्त अस्पताल ले जाना पड़ा। उसको पट्टी बंधवाकर मैं सीधा आ रहा हँू।
मि. सोनी को काटो तो खून नहीं। उसे भरे हाॅल में ‘साॅरी’ कहकर जाना पड़ा। उस
घटना के बाद तो हम सबने मिस माधुरी को हमारा यूनियन रिप्रजेन्टेटिव बना
लिया। अब हमारी समस्या एवं मैनेजर के बीच का सेतु वही होती।
एक बार वह बीमार पड़ी तो हम सभी उसे बारी-बारी से देखने गए। कोई उसकी
दवाइयां लेकर आता तो कोई टिफिन लेकर आता। तब मैंने पहली बार उसकी आँखें
आर्द देखी। आँखों के कोर से आँसू हटाते हुए उसने कहा, ‘‘घर से इतना दूर
मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं अकेली हूँ। आप लोगों ने मुझे कभी अकेला महसूस
ही नहीं होने दिया। उस दिन मैं उसके घर से आया तो बच्चों ने पूछा, ‘‘पापा,
कहाँ गए थे?’’ मैं उत्तर देता उसके पहले ही श्रीमतीजी की रसोई में से आवाज
आई, ‘‘कहाँ क्या गए थे बस वहीं गए थे। जरा मेंढकी को बुखार क्या हो गया,
सभी सेवा में लगे हैं।’’
सावन का महीना था। ठण्डी फुहारें मन को शीतलता एवं उमंग से भर देती थी। इस
बार तो पिकनिक होनी ही थी। पिकनिक में माधुरी ने इतना सुरीला गीत गाया कि
सभी दंग रह गए। जिह्वा पर मानो सरस्वती बैठी हो।
दिन-महीने यूँ ही बीतते चले गए। माधुरी को आए अब एक वर्ष होने को आया। इन
दिनों विषेषकर गत 15-20 दिनों से वह शांत, गंभीर दिखने लगी। जब भी हम बात
करते उसका चेहरा एक विषिष्ट लज्जा से आवृत्त हो जाता। स्टाफ समस्याओं के
प्रति भी वह उदासीनता बरतने लगी। जब भी मैनेजर से कोई बात करने की होती, वह
त्रिवेदी से निवेदन कर देती, ‘‘त्रिवेदीजी। प्लीज आप चले जाइये ना।’’ यह हम
सबके लिए परम रहस्य था।
मैंने लंच में एकाध बार माधुरी से जानने का प्रयास भी किया, आखिर बात क्या
है? क्या मि. सोनी ने आपको कुछ कह दिया है? त्रिवेदी ने अकड़कर सुर मिलाया,
‘‘आप तो बस इषारा कर दीजिए, सब मिलकर इसका जीना हराम कर देंगे।’’ उसने कुछ
जवाब नहीं दिया वरन् आँखें नीचे करके चली गई। इस रहस्य को सुलझाने के लिए
हमने उसकी अनुपस्थिति में एक बैठक भी की, पर इस गिरह को नहीं खोल सके।
हिम्मत करके एक बार मैंने मैनेजर से भी पूछा, ‘‘मि. सोनी, आपने उसे कुछ कह
तो नहीं दिया है? हमें कमजोर न आँकें। हमारे नेता के एक इषारे पर हम कार्य
बन्द कर देंगे। आप उसे अकेला नहीं समझें।’’ मि. सोनी दबी आवाज में बोले,
‘‘मैं उसे क्यों कहने लगा। मुझसे अधिक इस बैंक का भला तो उसने किया है। ऐसे
स्टाफ सदस्य जहाँ जाएंगे, वहाँ स्वर्ग बसा देंगे।’’
सदैव की तरह आज भी बैंक में रोजमर्रा कार्य प्रारम्भ हुआ। साढ़े दस बज गए,
माधुरी अभी तक नहीं पहुँची थी। वह सदैव समय पर आती थी, अतः चिंता होना
स्वाभाविक था। तभी बैंक में उसके मकान मालिक आए एवं एक बंद लिफाफा त्रिवेदी
को दे गए, बोले, ‘‘माधुरी ने भेजा है।’’
त्रिवेदी ने आनन फानन में लिफाफा खोला। उसमें एक पत्र एवं एक शादी का कार्ड
था। सभी स्टाफ सदस्य त्रिवेदी के पास आकर खड़े हो गए। पत्र पढ़ा तो सबको साँप
सूंघ गया। सबके चेहरे ऐसे थे मानो कमलों के वन को पाला मार गया हो।
‘‘प्रिय त्रिवेदी जी,
अगले माह 20 सितम्बर को मेरी शादी आपके मैनेजर मि. सोनी से होने जा रही है।
आप सभी सादर आमंत्रित हैं।’’
आप सभी आष्चर्य में होंगे कि यह सब अचानक कैसे हुआ। दरअसल विधि-विधान के
आगे मैं भी आष्चर्यचकित हूूँ।
करीब 20 रोज पहले मि. सोनी हमारे घर आए। उस रोज मेरे माता-पिता भी भोपाल से
आए हुए थे। उन्हें यूँ अचानक देखकर मैं हैरान रह गई। कुछ देर वार्ता के बाद
मि. सोनी ने मेरे पिता से अलग में जाकर बातचीत की। उन्होंने बताया कि वे
मुझे पसंद करते है एवं मुझसे शादी करने के इच्छुक हैं। उन्होंने यह भी
स्पष्ट किया कि वह स्वयं भी एक समृद्ध घर से हैं तथा उन्हें एवं उनके
परिवार को दहेज इत्यादि की जरा भी लालसा नहीं है। मेरी षिक्षा एवं संस्कृति
से प्रभावित होकर ही वह यह रिष्ता माँग रहे हैं। अगर आपकी पुत्री मुझे पसंद
करती हो तो मुझे सूचित करें। मेरे माता-पिता को मि. सोनी का व्यवहार व
स्पष्टवादिता भा गई। माँ की आँखों से तो आँसू छलक गए। अपने माँ-बाप की पसंद
एवं मि. सोनी का अनुग्रह मैं ठुकरा न सकी। आप यकीन मानें इस घटना के पूर्व
मि. सोनी ने मुझे ऐसा कोई आभास नहीं दिया।
बैंक के नियमानुसार शादी के बाद हमारा एक ही शाखा में रहना संभव नहीं है
अतः मैने इसी शहर की दूसरी शाखा में ट्रांसफर हेतु आवेदन पत्र हेड आॅफिस
भेज दिया है। शादी के बाद मैं सीधा वहीं रिपोर्ट करूंगी।
आषा करती हँू आप सभी शादी में अवष्य आएंगे।
सादर।
शुभेच्छु
माधुरी
इसके बाद हम सभी ने बारी-बारी से शादी का कार्ड देखा। कैबिन में बैठे मि. सोनी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। सभी ने अन्दर जाकर मि. सोनी को औपचारिक बधाई दी।
शाम घर जाते वक्त सभी के हृदय भारी थे। बादल सुबह से बरसने को थे पर अभी
तक बरसे नहीं थे। वातावरण में एक विचित्र उमस एवं चिपचिपाहट थी। रास्ते में
उच्छ्वास भरकर मैने आसमान की तरफ देखा। हृदय से बरबस ये भाव फूट पड़े-‘‘हे
लीलाधर। यह कैसी क्रूर क्रीड़ा है, कैसा निर्मम हास्य है। भोले भाले
मनुष्यों के अरमानों की होली जलाकर उसकी लपटों का तमाषा देखते हो।’’
घर पहुँचते-पहुँचते हल्की फुहार गिरने लगी थी।