अनुराधा शर्मा पुजारी
[एक विशेष राजनीतिक परिस्थितिवश अपनी जमीन से दूर बंगलादेश मे आश्रय
लेने वाले अल्फा के नेताओं ने भी पुलिस के जिम्मे के तहत एक एक करके लौटना
शुरु कर दिया। आज राज्य के हर नागरिक का एक ही सवाल है कि इन लौटने वाले
नेताओं ने हमे क्या दिया। इसके साथ साथ असम के नागरिक यह सवाल भी करते हैं
कि उग्रवाद के दमन के नाम पर असमवासियों पर जो अत्याचार हुए उसके लिए
सत्ताधारी नेताओं के मन मे जरा भी पशच्याताप क्यों नही है। इसीलिए हम
असमवासियों की यह धारणा बनी कि राज्य के सारे निवासियों को राष्ट्र अपना
शत्रु मानता है। पुलिस के जिम्मे मे लौट कर आने वाले अल्फा नेताओं के
संदर्भ मे भी राज्य मे एक ही सोच चल रहा है। इनसे भी आज एक ही सवाल किया जा
रहा है। इनके ही नेतृत्व मे अपने ही राज्य के और अपनी ही मातृभूमि के
जनसाधारण के घर घर मे करुण ऱौदन और हृदय विदारक चित्कार का जो उपहार दिया
गया उसके लिए इनको लेश मात्र भी पशच्याताप क्यों नही है। ]
समाचार पत्रों के कुछ सजक संपादक समाज के कुछ विशिष्ट ब्यक्तियों के जीवन
से जुङे तथ्यों, और सामाजिक व अन्यान्य क्षेत्रों मे उनके अवदान के विवरण
उनकी मृत्यु के पूर्व ही रिकॉर्ड करके रखते हैं ताकि उनके निधन के दूसरे ही
दिन उनकी संक्षिप्त जीवनी दिवंगत के प्रति श्रद्धांजलि के रुप मे तत्काल
छापी जा सके। एकबार किसी एक दुवारा ने अपने एक संपादक मित्र से पूछा – ‘
सुना है, तुम लोग कुछ विशिष्ट ब्यक्तियों की जीवनी उनकी मृत्यु के पहले से
ही लिख कर रखते हो, क्या यह सही है। हाँ, सही है, तुमने ठीक सुना है। मेरी
अपनी एक ब्यक्तिगत डायरी है। उसमे मैने कुछ विशिष्ठ ब्यक्तियों की मृत्यु
के पूर्व ही उनके प्रति श्रद्धांजलि के रुप मे कुछ लिख रखा है ताकि उपयुक्त
समय पर उसका उपयोग किया जा सके। तुम चाहो तो देख सकते हो। दुवारा ने बङी
उत्सुकता पूर्वक कहा- हाँ, हाँ क्यों नहीं। मै जरूर देखना चाहूंगा। संपादक
ने अपने सेल्फ से डायरी निकाल कर दुवारा को देखने के लिए दे दी। दुवारा ने
देखा उसमे बहुत से लोगों की संक्षिप्त जीवनी श्रंद्धांजलि के रुप मे लिखी
हुई है साथ ही दुवारा ने यह भी देखा कि डायरी के एक पन्ने पर सिर्फ उसका
नाम लिखा हुआ है पर उसके आगे और कुछ नहीं। संपादक से पूछा – मेरा सिर्फ नाम
लिखा हुआ है और कुछ नही। क्या मेरी मृत्यु नहीं होगी ? संपादक ने हंसते हुए
कहा – हां, हां तुम भी मरोगे। तुम सरकार मे बङे अफसर हो और तुम्हारी क्षमता
भी अपार है। लेकिन तुम्हारी क्षमता केवल तुम्हारे अपने स्वार्थ के लिए ही
है। इससे समाज का कोई ब्यापक हित नहीं हो रहा। l तुम्हारे पास अपना एक
सुन्दर और आलिशान मकान है। पर तुम्हे संतोष नहीं। इसके अलावा भी तुमने चार
पांच आलिशान मकान बना रखें हैं। लेकिन फुटपात पर सो कर रात बिताने वाले उन
लोगों के बारे मे क्या कभी तुमने सोचा जिनके सर पर छत नहीं होती। अपने
क्रोनिक उदर रोग की चिकित्सा के लिए तुम लंदन हो आये। लेकिन चिकित्सा के
अभाव मे मोत को गले लगाने वाले कम से कम दो मरीजों के इलाज करवाने की बात
तुम्हारे दिमाग मे कभी नहीं आई। इसीलिए जिस पन्ने पर तुम्हारा नाम लिखा है
वह बिल्कुल खाली है और जिन लोगों के नाम तुमने मेरी डायरी मे देखें हैं उन
लोगों ने अपने ब्यक्तिगत स्वार्थ व हित से ऊपर उठ कर समाज के ब्यापक हित के
लिए अपने जीवन को समर्पित किया है। इसीलिए मेरी डायरी मे उनको स्थान मिला
है। समाज मे ब्यक्तियों की पहचान उनके कार्यों से कायम होती है। तुमने ऐसा
कोई कर्म और कार्य समाज के ब्यापक हित के लिए नहीं किया और यही कारण है कि
तुम्ङारा समाज मे कोई स्थान नहीं है। जब समाज मे तुम्हारा कोई स्थान नहीं
तो मेरी डायरी मे तुम्हे स्थान कैसे मिल सकता है। संपादक ने गौर किया कि उस
दिन के बाद दुवारा की जीवन शैली मे परिवर्तन आने लगा।
उपरोक्त प्रसंग की चर्चा ‘डा. भूवनेश्वर बरुआ केंसर इंस्टिट्यूट’ के डा.
भवेश चन्द्र दास ने नव वर्ष के अवसर पर आयोजित एक समारोह मे मेरे साथ हुई
एक भेंट के दौरान की थी। इंस्टिट्यूट के अध्यक्ष डा. अमल कटकी के आमंत्रण
पर मेरे अतिरिक्त उस अवसर पर भाषाविद् गोलक चन्द्र गोस्वामी, शंकर नेत्रालय
के अध्यक्ष डा.हर्षभटदेव और शिल्पि पुलक बनर्जी उपस्थित थे। इंस्टिट्यूट के
डाक्टर्स और अन्यान्य कर्मचारियों की प्रसन्न मुख मुद्रा को देख कर लग रहा
था कि ये सब लोग कैंसर के रोगियों की शारीरिक और मानसिक सेवा के प्रति
समर्पित हैं। नववर्षके के इस समारोह मे होने वाले हर्षोल्लास के बीच
मनुष्यों के कार्यो और कर्मो के फल और उनके मुल्यांकन जैसे गंभीर विषयों पर
भी हमारे बीच ब्यापक चर्चा हुई। नववर्ष का यह समारोह मुझे चिंतन की एक
खुराक दे गया।
वस्तुतः जीवन का कर्म क्या होना चाहिए। समारोह से घर लौटते समय मै इसी
प्रश्न पर विचार कर रही थी। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि मनुष्य धन दौलत,
यश और मान-मर्यादा कमाने के बाद समाज मे अपना नेतृत्व स्थापित करने की
अभिलाषा पाले रहता है। चींटी से लेकर हाथी तक के मन मे दलपति बनने की
आकांक्षा बनी रहती है। जिम कारबेट ने भी अपनी जीवनी मे इस आशय का उल्लेख
किया है। विशेषतः हाथियों के संदर्भ मे यह तथ्य बिल्कुल सही माना जाता है।
विशेषज्ञों के अनुसार शेरों और बाघों मे दल गठन की प्रवृति नहीं होती।
नेतृत्व प्राप्त करने की इसी लालसा के चलते ही भारतवर्ष आजाद होने के बाद
असम मे रातों रात असंख्य नेता पैदा हो गये। देश, समाज और जातीय हित के नाम
पर राज्य मे लगभग पच्चास से भी अधिक दलों का गठन कर लिया गया और उसी अनुपात
में नेताओं की भी भरमार हो गई। इसी बीच एक विशेष राजनीतिक परिस्थितिवश अपनी
जमीन से दूर बंगलादेश मे आश्रय लेने वाले अल्फा के नेताओं ने भी पुलिस के
जिम्मे के तहत एक एक करके लौटना शुरु कर दिया। आज राज्य के हर नागरिक का एक
ही सवाल है कि इन लौटने वाले नेताओं ने हमे क्या दिया। इसके साथ साथ असम के
नागरिक यह सवाल भी करते हैं कि उग्रवाद के दमन के नाम पर असमवासियों पर जो
अत्याचार हुए उसके लिए सत्ताधारी नेताओं के मन मे जरा भी पशच्याताप क्यों
नही है। इसीलिए हम असमवासियों की यह धारणा बनी कि राज्य के सारे निवासियों
को राष्ट्र अपना शत्रु मानता है। पुलिस के जिम्मे मे लौट कर आने वाले अल्फा
नेताओं के संदर्भ मे भी राज्य मे एक ही सोच चल रहा है। इनसे भी आज एक ही
सवाल किया जा रहा है। इनके ही नेतृत्व मे अपने ही राज्य के और अपनी ही
मातृभूमि के जनसाधारण के घर घर मे करुण ऱौदन और हृदय विदारक चित्कार का जो
उपहार दिया गया उसके लिए इनको लेश मात्र भी पशच्याताप क्यों नही है। इन
नेताओं का अपने घर लौट आने पर किसी को कोई आपत्ति नही है। क्योंकि हर माँ
को अपनी संतान प्रिय है। हमारे विचार का विषय यह भी नहीं है कि ये लोग क्या
करके आये। हमारी तो चिंता यह है कि आज असम का जो सामाजिक परिदृष्य है उससे
लगता है कि राज्य का सामाजिक प्रमूल्य तिरोहित होने के अंतिम मोङ तक पहूंच
गया है। कर्मो का मुल्यांकन यदि इसी तरह होता है तो रोजी रोटी के लिए राज्य
के युवक युवतियों को उच्च शिक्षा-दिक्षा ग्रहण करने की कोई आवश्यकता नही
है। आज की पीढी के हर शिक्षित युवक का केवल एक ही सवाल है कि यदि नरसंहार
करने के बाद भी यदि फूलों की माला पहना कर स्वागत किया जाता है तो फिर
शिक्षा का प्रयोजन ही क्या है।
(इस आलेख की लेखिका असमीया भाषा की स्थापित साहित्यकार और पत्रकार है। असम मे बहुप्रसारित असमीया साप्ताहिक सादिन की संपादक भी हैं। असमीया मे लिखे इस आलेख का अनुवाद किया है नागेन्द्र शर्मा ने।)