न चिट्ठी ना लेटर बाॅक्स


-कौशलेंद्र प्रपन्न
आधुनिक तकनीक का हमारे आम जन जीवन पर कुछ इस तरह प्रहार हुआ कि हमारे बीच से कई महत्वपूर्ण चीजें घिसती हुई खत्म होने के कगार पर हैं। चिट्ठी-पत्री, पोस्टमैन, लैटर बाॅक्स आदि अब कम ही देखे जाते हैं। हालांकि इसके उलट तर्क पोस्टल डिपार्टमेंट की ओर आते रहते हंै कि चिट्ठयों का आना-जाना बतौर जारी है। यह अलग बात है कि वो चिट्ठयां कौन- सी हैं? वो कौन से लोग बचे रह गए हैं जो आज पत्र लिखते और जवाब पाने के इंतजार में हप्ता काट देते हैं। यदि इसके जड़ में जाएं तो शायद ऐसे लोगों की संख्या बेहद कम हो। लेकिन उनकी भी ज़िद है कि वो चिट्ठी लिखेंगे ही। जब तक चिट्ठी पत्री लिखने वाले बचेंगे तब तक डाकिए को गली मुहल्ले में चक्कर मारना ही पड़ेगा। देश के कई गांव, शहर, कस्बे में लेटर बाॅक्स की क्या स्थिति है जानना हो तो कभी दीवार या दरवाजे पर लटके लेटर बाॅक्स के पेट में हाथ डाल कर खंघालें तो पाएंगे कि हाथ में कुछ भी नहीं आता। महज चिड़ियों के पंख, बच्चों के डाले कागज या फिर किसी प्रोडक्ट के पंप्लेट्स या किसी रेस्तरां के मेन्यू के सिवा कुछ नहीं मिलता।
कसौली, हिमाचल प्रदेश के मुख्य डाकमास्टर एम एस डांगी बताते हैं कि इधर पांच छः सालों में अचानक चिट्ठियां कम हो गई हैं। पहले पर्व- त्योहारों एवं नए साल पर बधाई कार्ड आया करते थे। लेकिन अब तो वह भी कम हो गए। क्यों ऐसा हुआ? इस पर डांगी जी बताते हैं कि मोबाइल घर- घर में आ जाने से चिट्ठी- पत्री का चलन धीमा पड़ गया। अब तो लोग पलक झपकते अपने रिश्तेदारों से फोन पर बातें कर लेते हैं। जो बातें पहले चिट्ठी में लिखी जाती थीं वही और उससे भी ज्यादा बातें अब फोन पर हो जाती हैं। डांगी जी बताते हैं कि आज से दस साल पहले दिन में दो बार डाक निकालना पड़ता था। लेकिन आज एक बार में भी मुश्किल से दो या चार डाक ही मिल पाते हंै।
महानगर, शहर, कस्बे और गांवों में बसने वाले लोग धीरे-धीरे आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल करते- करते पारंपरिक चलन को पीछे छोड़ते चले गए। महानगरों की बात तो छोड़ ही दें अब तो आलम यह है कि गांव में भी डाक बाबु कम ही नजर आते हैं। कुरियर कंपनी की शाखाएं वहां भी खुल चुकी हैं। डाक व्यवस्था के समानांतर कुरियर सेवा देखते ही देखते देश के कोने- कोने में पैर फैला चुके हंै। वहां भी मोबाइल क्रांति की हलचलें साफतौर पर सुनी जा सकती हैं। देखते ही देखते खेत- खलिहान, पहाड़ की चोटी, मैदानी इलाके हर जगह सूचना, संप्रेषण तकनीक और नेटवर्क के जाल बिछते चले गए। हर दस कदम पर फलां -फलां मोबाइल सेवा प्रदाताओं के टाॅवर छतों पर खड़े नजर आ जाएंगे। उसके दुष्प्रभावों को अनदेखा करते हुए हम खुश होते हैं कि अब बात करते वक्त आवाज नहीं कटती। नेटवर्क की समस्या नहीं आती। उस पर जिनके छत पर टाॅवर लगते हैं उन्हें मोटी राशि भी मिलती है। इसी के बरक्स यदि हम चिट्ठी पत्री के युग को देखें तो पाएंगे कि इन चिट्ठियों के आने-जाने में जो भी वक्त लगता था उसमें हम सब्र से काम लेते थे। एक धैय था। लेकिन आज यदि कोई मोबाइल न उठाए तो एक डर सताने लगता है। गुस्से में लगातार फोन करते रहते हैं। देखते हैं कब तक फोन नहीं उठाता। उस पर उलाहना भी तैयार रहता है ‘क्या बात है किससे इतनी लंबी बात हो रही थी?’ इस एक वाक्य में तमाम रस मौजूद हैं किसी को भी दिन भर काटने के लिए बहुत है। यहां निश्चित ही हमने चैन खोया है। दूसरों के हाथ में अपनी जिंदगी की घंटी पकड़ा दी है जब वो चाहें बजा सकते हैं।
चिट्ठी में जो लिखते थे वह हाल समाचार, खुशी, ग़म सब पत्र पढ़ते वक्त जैसे सजीव हो उठते थे। लिखने वाले का चेहरा, हाव- भाव उभरने लगता था। चिट्ठी पत्री के जरीए खासे बहसें वैचारिक मत वाद-विवाद चला करते थे। लेखक-पाठक के बीच एक रिश्ता कायम करने में पत्रों की भी अहम भूमिका रही है। बड़े से बड़े लेखक, कवि, राजनेता आदि कई बार अपनी मतभिन्नता को मिटाने के लिए पत्र-व्यवहार का ही सहारा लिया करते थे। जो आज खासे महत्व के माने जाते हैं। चिट्ठी-पत्री एक तरह से दस्तावेज भी हुआ करती थीं। लेकिन जैसे- जैसे तकनीक का हमारे जन-जीवन में दखलअंदाजी शुरू हुई हम धीरे-धीरे आलसी होते चले गए। जहां कभी महिने में तीन चार चिट्ठियां पिता-पुत्र के बीच हुआ करती थीं। वह घिसते-घिसते दो, फिर एक और यह अंतराल दो महिने में एक और आखिर में दोनों ही ओर से चिट्ठियों का सिलसिला बंद हो गया। तर्क यह दिया जाने लगा कि फोन पर तो बात हो ही जाती है। कौन लिखने बैठे? जितनी देर में एक चिट्ठी लिखूंगा उतनी देर में तो ढेर सारी बातें हो जाएंगी। इस तर्क ने हमें किस- किस स्तर पर खरोचा है इसका जिक्र यहां आवश्यक नहीं है। किंतु मोबाइल ने हमें बेवजह झूठ बोलने, बहाने मारने की तालीम दिया। इसका एहसास हमें हो न हो, लेकिन सच्चाई तो यही है कि हम होते कहीं है लेकिन बताते कहीं और हैं। उस पर यह पूछने वाले पर गुस्सा भी आता है कि कहां हैं?
पिछले दिनों मुझे कुछ चिट्ठियां लेटर बाॅक्स में डालनी थी। इस बाबत मैं लेटर बाॅक्स की तलाश में पूरे इलाके में चक्कर काट आया। लेकिन कहीं लेटर बाॅक्स नहीं मिला। हां ईजी रिचार्ज के बाॅक्स जरूर नजर आए। जहां गाहे बगाहे फोन, इंटरनेट के बिल भरा है। मैं तंग आकर जस्ट डाॅयल हेल्प लाईन को फोन कर पूछा कि मेरे इलाके में लेटर बाॅक्स कहां पर है? उसने पोस्ट आॅफिस का पता तो बताया, लेकिन मेरे आस-पास लेटर- बाॅक्स का पता बताने में असमर्थता जाहिर की। आखिरकर मैंने अपने इलाके के डाक घर जाकर पूछने की ठानी। वहां पहले तो मेरे सवाल पर ही मुख्य डाकमास्टर हॅंस पड़े, गोया मैंने क्या पूछ लिया? फिर शांत होने पर बताया कि आपके इलाके में लेटर बाॅक्स पहले था, लेकिन हर बार वहां के बच्चों ने तोड़ दिया। कोई देखने भालने वाला नहीं है। इसलिए दुबारा नहीं लगा। वैसे भी आपके इलाके में कम ही डाक आते-जाते हैं। बिलावजह एक आदमी का श्रम बेकार जाता था।
यह भी कितनी अजीब बात है कि कुछ मुख्य डाक घर को छोड़कर शहर के अन्य डाक घरों में दिन भर में मुश्किल से चार पांच ग्रहाक ही आते हैं। इन्हीं चीजों को ध्यान रखते हुए सरकार ने कुछ साल पहले डाक घरों में न्यू ईयर के कार्ड, कुछ अन्य टिकट रखने एवं बेचने के साथ ग्राहकों को आकर्षित करने वाली सरकारी योजनाओं, बचत खाते आदि खोलने की व्यवस्था की थी। यह तो नहीं मालूम सरकार की यह कोशिश क्या रंग लाई। लेकिन इतना तो साफ है कि जिस रफ्तार से चिटठी- पत्री हमारे आम जन जीवन से दूर हो रही हैं ऐसे में एक समय ऐसा भी आएगा जब डाकिया, डाक घर और लेटर बाॅक्स महज कथाओं में सिमट जाएंगी। डाक का न आना या लेटर बाॅक्स का नदारत होना यह एक ऐस सामाजिक परिवर्तन की ओर इशारा करता है। जो हमारे बीच से धीर-धीरे ही सही किंतु दूर जा रहा है। यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसमें पुरानी चीजें अपना अस्तित्व खोकर नए रंग रूप में ढलने पर मजबूर होंगी। जो नहीं ढलेगा वह कैसे बचेगा। श्रीकांत वर्मा की कविता उधार लेकर कहूं तो ‘जो रचेगा वह कैसे बचेगा’
चिट्ठी, ख़तूत, पत्र एवं ऐसे ही अन्य और भी समानार्थी शब्द मिल सकती हैं जिसमें हमारा अतीत बंद हुआ करता था। किताबों के बीच छूपा कर प्रेम पत्र देना, पढ़ना, लिखना हमारी स्मृतियों में रची बसी हैं। साहित्य में चिट्ठी का खास स्थान रहा है। कालिदास हों या जायसी, भ्रमर गीत हो या विनय पत्रिका या अन्य आधुनिक काव्य धारा। हर जगह चिट्ठी अपनी छाप छोड़ती रही है। नेहरू ने जेल से इंदिरा को जो पत्र लिखा वह आज भी प्रासंगिक है। ‘पिता का पत्र पुत्र के नाम’ या फिर अब्राहम लिंकन के ख़त आज भी हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उनकी लिखी चिट्ठियां समाचार प्रेषित करने का माध्यम मात्र नहीं थीं बल्कि वह संवाद स्थापित करने में खास भूमिका निभाती थीं। वह संवाद चाहे पुत्र या पुत्र के साथ हो या आम जनता के साथ वह एक सशक्त माध्यम तो था ही। यहां तक कि प्राचीन भारतीय सभ्यता पर नजर डालें तो पाएंगे कि संदेश पहुंचाने का काम पहले हरकारे किया करते थे। वो चिट्ठी यदि आम जनता को संबोधित होती तो जोर जोर से पढ़ कर सुनाया जाता। हरकारे पैदल, घोड़े से चला करते थे। जैसे ही हमारे पास तकनीक आया वैसे वैसे संदेश के माध्यम में बदलाव देखा जाने लगा। हिंदी फिल्मों में इस चिट्ठी को लेकर हर काल खंड़ में गीत लिखे गए। एक तरफ ‘चिट्ठयां हो तो हर कोई बांचे भाग्य न बांचे कोए,,,’सुन सकते हैं वहीं ‘चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई। बड़े दिनों के बाद हम बेवतनों को’,,,,साथ ही नब्बे के दशक में ‘चिट्ठी आती है, हमें तड़पाती है, लिखो कब आओगे,,,कि ये दिल सूना सूना है।’ चिट्ठी को लेकर एक और बेहद संजीदा ग़ज़ल हालांकि प्रकृति से रहस्यवादी एवं जीवन के उस पहलू की ओर हमारा ध्यान खींचती है जिसे हम बड़ा ही भयावह मानते हंै। वह है मृत्यु। किंतु यह गीत जिं़दगी से रु ब रु कराती है ‘चिट्ठी ना कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश, जहां तुम चले गए। इस दिल पर लगा के ठेस कि हां तुम चले गए।’

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