"ये कहाँ का इन्साफ़ है कि मैं अपने बच्चे को देख नहीं सकती ? देखते हुए
उसे छू नहीं सकती, उसके मुलायम शरीर को महसूस नहीं कर सकती ? क्यों, पर
क्यों ? मैं उसकी माँ हूँ, ये कैसी सज़ा मुझको दी जा रही है? " माला के
मनोभाव इस वक्त किसी माला के बिखरे हुए मोतियों की तरह लड़खड़ाती जुबान से
टूटे हुए शब्दों से अपनी तड़प को जोड़ने के प्रयास में बिलखती हुई नज़र आ
रही थी॰
"तुमने खुद को उसके लायक ही ही कहाँ रक्ख छोड़ा है।"
"क्या मतलब?" यह माला की सहमी सहमी आवाज़ थी.
"तुम खुद से पूछो, अपने अंतरमन से पूछो, अपने अंदर की उस माँ से पूछो जो आज
ममता का दावा कर रही है माला. "
"माँ हूँ मैं उसकी, वो मेरा अंश है, फिर ये दूरियाँ कैसी...... " माला मन
ही मन जो ख़ुद को मुजरिम सा पा रही थी.
"इसमें कोई शक नहीं कि तुम उसकी माँ हो, यह भी माना कि वह तुम्हारा अंश है,
पर माँ होने के साथ-साथ माँ के कुछ फर्ज़ भी होते हैं, यह तुम बखू़बी जानती
हो. क्या दोष है शिशु का, जिसने अभी तक आँख खोल कर दुनिया की रौशनी भी नहीं
देखी है? इन उजालों को देखने के पहले उसका जीवन अंधेरों की ओर ढकेल दिया
गया है...!! "
"आखिर आप कहना क्या चाह रही हैं? " माला सूनी आंखो से बस निहारती रही डा॰
मानवी की ओर जो दीवार बन कर खड़ी थी उसकी ममता और शिशू के बीच.
"तुम खुद भी खूब समझ रही हो मैं क्या कहना चाह रही हूँ " डॉ. मानवी ने शांत
और सरल आवाज में माला की ओर एकटक देखते हुए कहा, जो प्रसव पीड़ा की यातना
से गुज़रने के बावजूद अब इस खालीपन के अहसास को झेल रही थी. डॉ. मानवी उस
पीड़ा को समझते हुए अनजान बनकर बातों से उस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कर
रही थी.
"पर फिर भी कोई तो ऐसी बीच की राह निकालिए डाक्टर जिससे मैं अपने बच्चे को
अपना पाऊँ. मैं किसी भी हालत में उससे खुद को जुदा रहने के बारे में सोच भी
नहीं पा रही हूँ." माला ने अपने अश्कों से नहाये चेहरे और सिसकियों से भरी
विनंती करते हुए डॉ. मानवी के सामने दोनों हाथ जोड़ दिये॰ अपनी ममता के
सामने हारी हुई नारी ने जैसे अपने सारे हथियार डाल दिये हों.
और डॉ. मानवी कश्मकश की इस उलझन में खुद कोई राह नहीं पा रही थी, जहाँ वह
कोई ऐसा सेतू बना पाए जिसपर चलकर माँ और शिशू का मिलन हो, न बिछडने वाला
मिलन. वह डाक्टर होने के पहले एक नारी थी, एक प्यासी ममता को सीने में
समेटे, हस्पताल के जन्में अनेकों नव शिशुओं पर अपनी ममता निछावर करती रही
है, और संतुष्टि से यह मान लिया है की हस्पताल में जन्म हर बच्चा उसकी ममता
के हकदार हैं, और यही उसका सौभाग्य है!
"तो फिर तुम्हें अपने आपसे लड़ना होगा. अपने अंदर की कमज़ोरी पर फ़तह पानी
होगी । खुद को साफ़ सुथरा रखने में जब तुम कामयाब हो जाओगी तब ही तुम्हें
अपने बच्चे को गोद में उठाने की इजाज़त मिल पाएगी." कहते कहते डॉ. मानवी ने
उड़ती नज़र माला के चेहरे पर डाली तो उसे लगा कि बेबस ममता की सारी काइनात
बे-काबू और अधीर थी, छः हफ़्ते के उस नव शिशू को अपने आंचल में समेटने के
लिये...! उस छटपटाहट को उससे ज़ियादा और कौन जान सकता था जो खुद १४ साल के
सुखद विवाहित जीवन के बाद भी संतान के न होने का बनवास भोग रही है. लाज़मी
है स्त्री तब ही संपूर्ण होती है जब वह माँ बनती है । जब वह माँ होती है तो
बच्चे के रोने की आवाज़ मात्र जब उसके कानों तक पहुँचती है तो उसी वक्त
छाती भी नव शिशु जो अपना दूध पिलाने को उतावली हो उठती है । अब तक ऐसे हर
सुख से माला वंचित है , जिसकी छटपटाहट का डॉ. मानवी को अनुमान है । पर वह
मजबूर है, क्योंकि जब से शिशु ने जन्म लिया है वह incubator में रक्खा गया
है॰ पूरी तपास व तहकी़कात की रिपोर्ट यह बता रही है कि सांस लेने में
लगातार दुश्वारी का कारण है बच्चे के खून में ड्रग का असर. पहले तो बच्चा
साढ़े छः महीने का pr-mature पैदा हुआ और ऊपर से यह वेदना । सवाल ही नहीं
उठता कि किसी भी सूरत में बच्चा माँ के आसपास या उसके साथ रहे । अभी तक यह
भी तय नहीं हो पा रहा है कि बच्चा ख़तरे के बाहर कब होगा और होगा तो उसके
साथ मां की ओर से बर्ताव कैसा होगा । सब डॉक्टरों कि मिली जुली एक मत राय
यही रही कि बच्चे को माँ से बिलकुल ही अलग रक्खा जाय ।
माला बस निराश नज़रों से शीशे के अंदर से उस शिशू को देख मात्र पाई थी ।
देखने के पश्चात अपने आपसे लड़ती रही, रोती रही, आज अपनी नशे में चूर जवानी
का एक नमूना उसके सामने था । परेशान और पशेमान माला जानती थी कि गर्भ के
पहले चार महीने उसने ड्रग लिये थे । फिर चेकअप के दौरान डॉक्टर के सख़्त
आगाह करने पर, उसने बहुत कोशिश की अपने आप से लड़ने की, अपनी उस कमजोरी पर
फ़तह पाने की भरपूर कोशिश की, पर जैसे चोर चोरी करना छोड़ सकता है पर हेरा
फेरी करना नहीं, ठीक उसी तरह माला भी कभी-कभी फिर उस एक पल के सुख की चाहत
में बहकर फिर वही गलती दोहरा बैठती थी, जो उसे कभी नहीं करनी चाहिये थी ।
नतीजा सामने था, प्यासी ममता की एक तरसती सिसकती आह जो अपने जिगर के टुकड़े
का नर्म छुहाव महसूस करने और उसे गले लगाने को आतुर थी॰
डॉ. मानवी की कड़ी नज़र के नीचे, हर हिदायत को मान कर माला ने अपने ऊपर
काबू पाने का निश्चय कर लिया । क्या ममता कभी, कोई शर्त भी रख सकती है, वह
तो अपने बच्चों पर अपनी ममता की पूंजी निछावर कर सकती है छः महीने लगातार
ख़ुद से जूझना, खुद को उस ज़हर से निवारण दिलाना और फिर उम्र भर के लिये
उसे तज देना, यही तय हुआ था. शर्त भी यही रही बच्चे को आलिंगन में लेने के
लिये । पहले पहले यह मुशकिल जरूर था पर नामुकिन कुछ न था. जो माँ बच्चे को
गर्भ में अपने लहू से सींच सकती है , वह उसकी धड़कती साँसों को सुनने के
किये अपने अहसासों को अगर मारकर जी पाती है तो भी उसे कबूल था. लगातार छः
महीने हर हफ़्ते समयनुसार हस्पताल आकर अपने खून का टेस्ट कराती और फिर वह
जब अगली बार आती तो और सभी डॉक्टरों के साथ डॉ. मानवी का मुस्कराता चहरा
उसका स्वागत करता । यह एक स्वागत प्रमाण था कि वह पछतावे की परीक्षा में
सफलता पा रही है ।
छः महीने की इस कड़ी तपस्या ने एक ममत्व का जज़्बा और भी परिपक्व बना दिया
जिसको एक रिश्ते में बांधने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार थी। आखिर छः
महीने बीते और माया की परीक्षा का फल जानने को ख़ुद माला और सभी डाक्टर भी
उत्सुक थे. जब माला के खून की रिपोर्ट बिलकुल साफ सुथरी उनके हाथ आई तो सभी
के चेहरों पर एक ख़ुशनुमा रौनक चा गयी। अब माला हर आम इन्सान की तरह एक
अच्छे जीवन को जीने की हकदार बन गई और जो जागीर वह पाने जा रही है वह उसकी
ज़िदगी का सबसे बेहतरीन तोहफ़ा था.
पहली बार उसकी गोद में शिशु दिया गया पर छः महीने और दूध न पिलाने की ताकीद
के साथ, क्योंकि डॉक्टर किसी भी तरह की इन्फे़क्शन का ख़तरा उठाने को तैयार
न थे। माला ने जब अपने शिशु को अपनी छाती से लगाया तो उसे आभास हुआ कि
काइनात की सारी कोमलता उसके आँचल में सिमट आई हो, जिसकी खुशबू से उसकी
प्यासी ममता शबनम में नहा गई हो. सब कुछ नम था - माला के नयन, उसकी दूध से
छलकती छाती, उसकी गोद में प्रेम से नहाया हुआ उसका बेटा, यूं लगा प्रेम ने
खुद को भिगो दिया था. ममता का प्यासा आंचल आज जलमय हो गया.
अपनी लिखी सिंधी कहानी का अनुवादः देवी नागरानी