मेरी माँ


- मनोज भावुक
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ए बबुआ.. ए बेटा पहुँच गए ।
'हाँ माँ ' .............
' अरे मेरे बाबू ' ...........
कह कर रोने लगी थी माँ । मुझसे कुछ बोला नहीं गया ...........

माँ की आवाज काँप रही थी। माँ बहुत घबरायी हुयी थी। लोगों ने कह दिया था युगांडा बहुत खतरनाक देश है। दिन दहाड़े लूट लेते हैं। आदमी को मार कर खाने वाले आदमी वहां रहते हैं। बहुत मना की थी माँ । मत जाओ। जान से बढकर पैसा नहीं हैं। जिंदा रहोगे तो बहुत कमाओगे।

माँ को इतना घबराये कभी नहीं देखा था.।

........... ज़िन्दगी भटकते, संघर्ष करते बीती । बंजारे की तरह.....। घर छूटा तो छूटा ही रह गया। घर ( गाँव) में रहा कहाँ। घर ही परदेस हो गया। कभी पढने के लिये, कभी नौकरी के लिये, कभी ज्ञान के लिये, कभी पेट के लिये................। पेट, पैर में चरखा लगा कर रखता हैं और आदमी चलता रहता हैं, भागता रहता हैं । जब पढने के लिये पटना रह रहा था तो याद नहीं कि कितनी बार भाग- भाग कर गाँव गया था। पर्व त्यौहार गाँव जाने का बहाना होता था । लेकिन छुटियाँ कब बीत जातीं, पता ही नहीं चलता। उस समय घर भी दो टुकड़े में बंट गया था. कौसड़ (सीवान) और रेनुकूट ( सोनभद्र) ।

अब जहाँ माँ रहती वहीं घर था। घर क्या पिकनिक स्पोट था । जल्दी ही घर से पटना लौटने का समय हो जाता। सुबह-सुबह टीका लगाकर, तुलसी चौरा और शोखा बाबा( गृह देवता) के आगे मस्तक झुका के, दही-पूड़ी खाकर और झोले में लिट्ठी, ठेकुआ , खजूर, चिवडा, गुड और घी अंचार लेकर.......... सभी के पैर छूकर जब घर से निकलता तब माँ मुझे निहारती रह जाती। उसे लगता घर में ही कॉलेज रहता तो कितना बढ़िया होता। मेरे गाँव कौसड़ (सीवान) से पंजुवार का रोड दिखाई देता हैं। माँ छत पर खड़ी होकर जितनी दूर हो सके देखती रहती । मुझसे पीछे मुड़कर देखा नहीं जाता था। रेनुकूट से पटना जाने के क्रम में कई बार ऐसा हुआ कि जाने के लिये घर से निकलता और स्टेशन से टिकट लौटा कर घर वापस आ जाता । भाभी मुस्कुराते हुए झोले की ओर हीं देखती,....कल फिर भुजिया चीरनी और लिट्टी, पूड़ी छाननी होगी। केहुनिया कर पूछ देती......." पटना में कोई ऐसी नहीं है जो उधर खींचे" ।

अब मै भाभी को क्या समझाऊँ कि मेरी ज़िन्दगी में कितनी खीचतान हुई हैं। तंग आकर एक बार मेरी पत्नी ने कह दिया कि "आपका दिल तो भगवान का प्रसाद है ।'' ..... तब मैंने उनसे कहा कि सब प्रसाद तो तुम ही खा गई । अब दिमाग मत खाओ । वह पिनक कर फायर । कहा बुकुनिया बचा है, उसी को बांटिये । ............. पिनकाना , चिढ़ाना, रिगाना. कउंचाना मेरी आदत थी । मै माँ को भी चिढ़ाता था। आखिर तू ने मेरे लिए किया क्या है। ” .....” बडका के घर-दुआर, छोटका के माई-बाप, गइले पूता मझिलू । ”.... मै मझिला हूँ । मुझसे तुम्हारा मतलब ही क्या रहा है। उधर कैकयी ने बनवास दिया राम को और इधर तूने मनोज को । बचपन से हीं दरअसल पढाई -लिखाई और नौकरी के सिलसिले में सबसे ज्यादा घर से बाहर मै हीं रहा । बड़े भैया, छोटा भाई या दीदी ............. ये लोग ज्यादा माँ के पास रहे।

लेकिन युगांडा (अफ्रीका) आने पर और माँ से फोन पर बात करने पर मुझे ये अहसास हुआ कि ...... नहीं. पास में रहने से नहीं........ दूर जाने पर..............अनजान जगह जाने पर.......... शायद प्रेम और बढ़ जाता है, चिंता फिकर और गहरी हो जाती है । माँ हज़ारों किलोमीटर की दूरी से मुझे आपनी बाहों में ऐसे क़स कर पकडे थी जैसे कोई मुझे उसकी गोद से छीन कर ले जा रहा हो. ..........।

माँ मेरी कविता के केंद्र में थी । माँ मेरी प्रेरणा स्त्रोत रही । उसकी याद से मेरी कविता की शुरुआत हुई । मेरी पहली कविता हैं ..........माई (माँ) जो 1997 में भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित हुई थी । उस कविता में माँ के प्रति मेरे जो भाव रहे उसकी कुछ झलकियाँ और साथ ही मेरे रचना संसार में माँ ........ इस पर हम इस आलेख के अंत में अलग से चर्चा करेंगे । अभी तो एक शेर के माध्यम से अपनी बात आगे बढ़ा रहा हूँ .......

मझधार से हम बांच के अइनी किनार पर
देवास पर भगवान से भखले होई माई

मझधार से मै बच कर आया किनारा पर
देवास पर भगवान से मनौती की होगी माँ

माँ मेरे दुःख-सुख में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमेशा मेरे साथ रही । वह मेरे लिये कितनी बार मनौती की है... यह तो याद नहीं है लेकिन बचपन की कुछ बातें अभी भी याद हैं...........

याद है कि पढता मै था और जागती माँ थी......... क्योंकि उसे चाय बनाकर देना होता था। सोता मै था और जागती माँ थी क्योंकि उसे मुझे सुबह जगाना होता था । तो आखिर कब सोती थी माँ ?....... माँ बहुत कम सोती । अंगना से दुअरा चलती रहती थी माँ । काम ना रहने पर काम खोजती रहती थी । काम उसके डर से छिपता फिरता । सुबह पांच बजे से महावीर जी, दुर्गा जी और तुलसी जी की पूजा से जो दिनचर्या शुरू होती वह रात के नौ बजे तक चलती । घर के काम के अलावा पिताजी की नेतागिरी के चलते जो मेहमानों की खातिरदारी होती उसमे माँ दिन भर चाय के साथ उबलती रहती । हमेशा एक- दो आदमी नौकरी के लिये घर में पड़े रहते थे । पिताजी के अपनेपन का दायरा विशाल था और उस अपनेपन में पिसती रहती थी माँ। माँ बहुत सहनशील थी । इस कारन पिताजी की नेतागिरी घर में भी चलती। पिताजी मजदूर यूनियन के नेता थे । उनका सारा ध्यान समाज और यूनियन पर था। इस से घर परिवार की अधिकांश जिम्मेदारी माँ पर आ गई थी । इतना ही नहीं माँ कई टुकडो में बँट गयी थी। वह रेनुकूट में रहती और सोचती कौसड़ की । गाँव में धान कट गई होगी, गेहूं पक गया होगा, भुट्टा पिट गया होगा......... अनाज बर्बाद हो रहा होगा। हर तीन चार महीने के अंतराल पर माँ गाँव चली जाती थी सहेजने- संभालने ।

उस समय मै सोचता कि मेरी बढ़िया नौकरी लग जाए तो मै माँ को इस माया से मुक्त कर दूंगा । नौकरी लगी पर्ल पेट, महाड़, महाराष्ट्र में ट्रेनी इंजिनियर के रूप में........... और ट्रेनिंग कंप्लीट होने पर अफ्रीका और फिर इंग्लैंड चला गया। इंग्लैंड से लौटने के बाद जब मीडिया से जुड़ा और नौयडा में रहने लगा तो माँ को नौयडा ले आया लेकिन नौयडा माँ को रास नहीं आयी । " ए बबुआ यहाँ तो जेल की तरह लगता है । " हालांकि माँ का मन लगाने के लिये अनिता ( मेरी पत्नी) रोज शाम को उनको मंदिर अथवा पार्क कहीं ना कहीं ले जाती थी। लेकिन यहाँ माँ चार महीने से अधिक नहीं टिकी। कैसे टिकती ? माँ पीछले तीस- पैतीस साल से जिस रेनुकूट में रह रही थी वह तो गाँव की तरह ही था। पिताजी ने अपनी चलती में सैकड़ों लोगो की हिंडाल्को में नौकरी लगायी थी। गाँव -जवार, हीत-मित्र और नाते रिश्तेदारों के कई परिवार एक ही मोहल्ले में बस गए थे.।........ माँ उनमे सबसे वरिष्ट, सबसे सीनियर थी । किसी की मामी, किसी की मौसी, किसी की चाची, किसी की दादी । अब किसी को कुछ भी हो या तीज -त्यौहार से सम्बंधित कोई सलाह लेनी हो तो माँ के पास आते । सच पूछिए तो मेरी माँ सबकी माँ हो गई थी ।............ तो भला उसका मन एक बेटा- एक बहू के पास कैसे लगता । ...... माँ नौयडा से रेनुकूट चली गयी ।

माँ मुझे टीवी पर देखकर खुश होती हैं । .......मंच पर भी एक दो बार सुनी हैं । भोजपुरी-मैथिली अकादमी (2008 ) के गणतंत्र दिवस कविता उत्सव में माँ ने दूसरी बार मुझे लाइव सुना था। इसके पहले कोलकाता में 2006 में जब मेरे ग़ज़ल- संग्रह पर "भारतीय भाषा परिषद सम्मान" मिला था और मै वह सम्मान लेने लन्दन से इंडिया आया था .......तो समयभाव के कारण माँ को कोलकाता बुला लिया था । माँ ने पहली बार वहां मुझे मंच पर बोलते देखा था । सम्मान मिलने के बाद मंच से नीचे उतरकर माँ का चरण स्पर्श किया और जो शाल मिला था उसके कंधे पर रख दिया था। माँ को अच्छा लगा था। उसे लगा था कि उसका रात-रात भर जागना काम आया ......क्योंकि माँ अब यह समझ गयी थी कि वह रात भर जागती थी कि बेटा पढ़े ............... और मै पढता कम ....कविता -कहानी अधिक लिखता था। आज उस कविता ने मुझे सम्मान दिलाया तो माँ खुश थी । धीरे-धीरे वक़्त गुजरने पर माँ को भी मंच की सच्चाई समझ में आने लगी। एक बार उसने मुझसे कहा था " ए बबुआ खाली ताली ही कमाओगे ?" यह जगह-जगह घूम -घूम शाल -चद्दर और शील्ड बटोरने से क्या होगा? तुम्हारे जैसे लोग क्या से क्या कर लेते हैं और तू लन्दन-अफ्रीका में रहकर भी फक्कड़ ही रह गया ।. ..... ना घर, ना गाडी, ना स्थिर ठौर ठिकाना । .....किसी जगह कहीं स्थिर रहोगे नहीं. ।.... किसी एक काम में मन नहीं लगावोगे .....ज़िन्दगी भर ऐसे हीं बिखरे रहोगे , भटकते रहोगे । अपने लिये नहीं तो अपने बेटे के लिये सोचो ।........ परिवार के लिये सोचो । ...........माँ ने मुझे नंगा कर दिया था । ऐसे भी माँ के सामने बेटा हमेशा नंगा होता है। माँ बेटे की हर सच्चाई जानती है..।...............कहे या ना कहे ।

मै माँ की कसक .......... माँ की टीस समझ रहा था । मेरा प्रोग्रेस उसकी दृष्टि में संतोषजनक नहीं था। मेरा ही नहीं पिताजी का प्रोग्रेस भी माँ की दृष्टि में संतोषजनक नहीं था। पिताजी भी ज़िन्दगी भर फक्कड़ हीं रहे । ............... माँ ताना मारती "बाक़ी नेता कहाँ से कहाँ पहुंच गए और आप ?.......आपके रिटायर होते हीं बच्चों की पढ़ाई तक का पैसा घटने लगा । दरअसल माँ ने घोर तंगी और अभाव को नजदीक से देखा और भोगा था............... और वह तंगी जो अमीरी के बाद आती है वह तो और भी कष्टदायक होती है। ..........यह तंगी बाबा की जमीन्दारी और ऐशो- आराम के बाद आई थी । माँ नहीं चाहती कि मेरी ज़िन्दगी में भी और मेरे औलाद की ज़िन्दगी में भी वैसा ही हो। जीवन में अर्थ के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। इसी से माँ ने सच बोल दिया था।
उसकी बात थोड़ी तीखी लगी थी लेकिन इतनी समझ तो है हीं .....कि ज़िन्दगी के हर कडवाहट में अमृत का प्याला बनकर खड़ी रहने वाली माँ कड़वा क्यों बोल रही थी । कभी- कभी गार्जियन को कड़वा बनना ही चाहिए ।. .............. लेकिन मुझ पर असर?......... चिकने घडे पर क्या असर होगा जी..............
दरअसल माँ ने पिताजी के राज में राजशाही देखी थी । अच्छे - अच्छे लोगों को दरवाज़े पर पानी भरते देखा था। पिताजी की धमक, दबंगई और चलती देखी थी। वे सुख के दिन थे । सुख में सपना कुछ अधिक उड़ान भरने लगता है । उस समय माँ ने जो उम्मीदें की थीं उनमे से आज एक भी साकार नहीं है। माँ अंदर से खुश नहीं है । लेदेकर मुझसे सबसे अधिक उम्मीद थी लेकिन मैंने भी उसे निराश ही किया । .................... भैया को लेकर वह सबसे ज्यादा चिंतिंत रहती है। छोटे बेटे के आवाज़ की तारीफ और शोर सुनी तो लगा कि वह बड़ा गायक बनेगा लेकिन वहाँ भी दिल्ली अभी दूर दिखाई देती है । कुल मिलाकर कोई बेटा माँ का कर्ज उतार नहीं सका।

मेरे बाबा की तीन शादी। बाबूजी नौ भाई। नौ भाई से हम पच्चीस भाई । एक लम्बा चौड़ा परिवार । लेकिन माँ सबकी फेवरेट । ..........माँ की सबसे बड़ी ताक़त थी...........उसकी चुप्पी......उसकी ख़ामोशी। सबके लिये वह हेल्पफुल थी । जरूरत पड़ने पर वह कर्ज लेकर भी मदद करती। .......... माँ ससुराल में ही नहीं अपने नैहर में भी सबकी फेवरेट थी । माँ की चार बहनें और दो भाई थे। बड़े मामा प्रोफेसर राजगृह सिंह की वह लाडली थी। जब कभी माँ की बात होती तो मामा यह बात जरुर कहते कि उस लम्बे चौड़े परिवार (ससुराल का परिवार) को एक सूत्र में बाँध कर रखने में हमारी सुनयना की बहुत बड़ी भूमिका रही है........और इतना हीं नहीं सुनयना के जाने के बाद वह परिवार बहुत आगे बढ़ा है ।

मेरी माँ पढ़ी- लिखी नहीं है , लेकिन अपने नेक स्वभाव के कारण परिवार में और सम्बन्धियों के बीच सबके लिए आदर्श बन गयी है।...... तो मुझे लगता है कि भले ही उसे अक्षर ज्ञान नहीं है लेकिन उसने जिंदगी को खूब पढ़ा है । ..... माँ देवी- देवता पूजती है लेकिन भाग्यवादी नहीं है। उसका विश्वास कर्म में है । काम करते ही उसकी जिंदगी बीती । इसी कारण वह निरोग रही । मोटापा उसके पास कभी नहीं फटक सका । माँ का खान- पान भी बहुत संयमित है । माँ शुद्ध शाकाहारी है । भाभी अभी भी मीट- मछली पर चोट मारती हैं। पिताजी को रोज मिले तब भी कोई बात नहीं। एक ज़माने में पिताजी ने मुर्गा -मुर्गियों के लिए एक अलग घर बना रखा था , जिसमें हमेशा सौ- डेढ़ सौ मुर्गा-मुर्गियां रहा करती थी । मजमा लगता और मुर्गा-भात चलता । माँ तब भी शाकाहारी ही रही । हाँ; ......बनाकर खिलाने में उसे कोई परहेज नहीं था । यही हाल मेरी पत्नी की भी है । वो भी नहीं खातीं पर बनाती हैं और पिताजी की तरह ही मुझे रोज मिले तब भी कोई हर्ज नहीं।

अप्रैल 2009 ............ बहुत मना किया.. माँ नहीं मानी। नौयडा से चली ही गयी और कुछ दिन बाद गाँव में किसी शादी में गयी तो कहीं गिर गई। कूल्हे की हड्डी टूट गयी। बनारस में आपरेशन करके आर्टिफिशियल कूल्हा लगा। चार- पांच महीने बिस्तर पर रहने के बाद धीरे-धीरे चलना शुरू किया। अब चलती हैं । कूल्हा आर्टिफिशियल है लेकिन माँ का चलना पहले जैसा हीं है । ...आदत पीछा नहीं छोड़ती । काम खोजती रहती है । हालांकि अब उसे काम करने की कोई जरुरत नही है । दो बहुएं मौजूद हीं थीं । 17 नवम्बर 2010 को तीसरे बेटे धर्मेन्द्र की शादी हो गई। अब जिसकी तीन-तीन बहुएं हैं । उसे क्या जरुरत है कुछ करने की ...... लेकिन माँ काम में तीनों बहुओं से बीस पड़ती है । खिसियाने पर अपने काम के पैरामीटर से तीनों जनों को नापती और उन्हें निकम्मा घोषित कर देती है ........और खुश होती तो उसके बेटा-बहू की बराबरी दुनिया में कोई नहीं कर सकता । उनके तारीफों के पूल बाँध देती है ।

घर के पास (तुर्रा,पिपरी में ) बहुत ऊंचाई पर हनुमान जी की एक प्रतिमा है। अब तो मंदिर का निर्माण हो रहा है। पिताजी इस पुण्य कार्य में जोर-शोर से लगे हैं । मंदिर इतनी ऊंचाई पर है कि वहाँ से पूरा शहर और रिहंद डेम दिखाई देता है ........रास्ता सीधे खडा है । ......माँ उस पर चढ़ नहीं पाती । लेकिन रोज़ वहाँ जाती है । कभी अकेले और कभी उत्कर्ष और हिमांशु को लेकर । ......माँ नीचे खड़े रहकर उस ऊंचाई पर बैठे हनुमान जी को देखती है । ऊपर जाने के लिए उसका मन बेचैन हो उठता है । रोज़ भोर में वहीं तो दीप जलाने आती थी । .... माँ वहाँ खडी होकर बहुत देर तक देखती है । ........रोज़ देखती है । ........शायद भगवान से पूछती होगी ......" हे भगवान, तूने ऐसा क्यों किया ?"

माँ भगवान को याद करती है और मै माँ को । मै याद क्या करता हूँ .....जब भी परेशान होता हूँ , दुखी होता हूँ , मुसीबत में होता हूँ तो वह खुद- ब- खुद याद आ जाती है भगवान की तरह।

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