सुना था, नोटों की हरियाली और उजले सिक्के की चमक, बडे- बड़ों के इमान को डोला देता है ,संत-आँख का पानी उतर आता है । लेकिन यह क्या, इसने पी रखी है क्या जो चीथड़े पर इतना गुमान दिखा गया; जैसे कोई करोड़पति हो । एक – दो रुपये नहीं,पूरे सौ रुपये के नोट को लात मार गया । कह गया, ’मैडम ! इसे अपने पास ही रखो, अगर कुछ देना ही चाहती हो तो मेरे लिये दुआ करना ’ ।
पहले तो मुझे उसकी गरीबी पर दया आई थी, जो मैं पन्द्रह की जगह सौ रुपये देना चाही, लेकिन उसका यह व्यवहार मुझे बहुत दुख पहुँचाया और मैं वहीं प्लाटफ़ार्म पर खड़ी-खड़ी उसे देखती हुई, बड़बड़ाती रही ,’ नालायक ! दुआ लेकर क्या करोगे,पहनोगे, बिछाओगे या ओढ़ोगे ; लेकिन इस पैसे को तुम रख लेते ,तो तुम्हारे कुछ काम आते । बेवकूफ़ है तुम, जिस दुआ को कभी अपनी आँखों से देखा ही नहीं. उसके लिए सौ के नोट को ठुकरा देना बेवकूफ़ी नहीं ,तो और क्या है ? अरे ! दुआ तो सभी करते हैं, लेकिन क्या सबों की दुआ कबूल होती है ? फ़िर मैं कौन सी साध्वी हूँ, जो माँगने से ही तुम्हारे लिये दुआ मुझे मिल जायगी । ऐसे भी, तुमने सोचा कैसे, तुम्हारे कहने से मैं तुम्हारे लिये, दुआ माँगूँगी । बेहतर होता कि तुम इस पैसे को रख लेते, तो तुम्हारा कुछ काम संवर जाता और मैं भी सोचती—- ’चलो, उपकार का बदला ,पन्द्रह की जग्रह सौ की नोट देकर चुका दिय” । आज के जमाने में, जहाँ लोग पैसे—पैसे का हिसाब करते हैं , वहाँ पिचासी रुपये अधिक देना; यह भी तो एक प्रकार का उपकार ही हुआ ना !
तभी वहाँ खड़ा, एक आदमी मेरी ओर देखते हुए कहा, ’ मैडम ! वह लड़का तो चला गया, आप भी जाओ । वरना आपकी ट्रेन छूट जायेगी । शायद यही लास्ट ट्रेन भी है ; फ़िर आपको, सुबह के चार बजे ट्रेंनें मिलेंगी । मैं अपनी घड़ी की ओर नजर दौड़ाई , रात के १२.४५ बज रहे थे ।
मैंने कहा ,’ वो तो ठीक है भाई साहब ! लेकिन वह लड़का, जिसने मुझे ट्रेन टिकट के लिए कूपन दिया; आपने देखा, मैंने उसे पन्द्रह रूपये के कूपन की जगह १०० रुपये दे रही थी । लेकिन किस तरह उसने, रुपये को मेरी ओर ठेलते हुए चल दिया और जाते-जाते कह गया, ’पैसे नहीं चाहिये, हो सके तो मेरे लिए दुआ करना’ । क्या आप उसे जानते हैं, क्योंकि वह भी मुसलमान था और आप भी ….।’ अगर आप जानते हैं तो उसके घर का पता लिखवा देते, तो मैं उसे ये पैसे भेज देती । काफ़ी गरीब था, बेचारा । सुनकर उस आदमी ने कहा,’ नहीं मैं उसे नहीं जानता । लेकिन जब आप उस लड़के को कह रही थीं,’ तुम्हारे पास १५ रुपये का एक्सट्रा कूपन हो तो, कृपया मुझे दे दो, मैं तुम्हारा उपकार कभी नहीं भूलूँगी । टिकट की कतारें बहुत लम्बी है,और रात के १२.४५ बज रहे हैं,,,, ; शायद यही ट्रेन लास्ट भी है ,उसने बिना कुछ बोले आपको कूपन थमा दिया । बदले में जब आप उसे पैसे देना चाहीं, तो वह झटकता हुआ निकल गया । तब मुझे भी उसका यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा । मैं भी सोचने लगा था,’ पैसे नहीं लेना था , तो हँसकर कह सकता था । ’ मैडम ! मुझे पैसे नहीं चाहिये, लेकिन वह बिना कुछ कहे निकल गया । जब मेरी नजरें उसकी फ़टी कमीज और नंगे पाँव पर पड़ीं, तब मुझे अपनी सोच पर बड़ी शर्मंदगी आई । मुझे लगा, यह उसकी अकड़ नहीं, गरीबी की मायूसी है, जो , चुप रहने में ही अपनी भलाई समझता है । पर जाते-जाते उसका धीरे से यह कह जाना, ’मैडम ! मुझे पैसे नहीं, दुआ चाहिये । हो सके तो, मेरे लिए दुआ करना ।’ इसलिए मैडम ! उस गरीब के लिये दुआ कीजिये । आपके सौ रुपये की नोट उसके जीवन की तंगी नहीं मिटा सकेगी । यही कारण है कि उसने , आपसे दुआ की गुजारिश की । सोचा, आप जैसों की दुआ से शायद मेरा जीवन संवर जाय ।’
सुनकर मेरी आँखें छलछला उठीं और आत्मा कह उठी,’ तुम जो कोई भी हो, ईश्वर ! तुमको सुखी रखे । तुम जिस काम से मुम्बई आये हो, तुम्हारा काम पूरा हो । मेरी दुआ सदा तुम्हारे साथ रहेगी , भरोसा रखो । आज तपा रही धूप है, कल बरसात होगी ।’