-कौशलेंद्र प्रपन्न
आत्मा तो अमर है न बाबा। तो क्या आत्मा मरती भी नहीं? बाबा, फिर तो जनमती
भी नहीं होगी आत्मा? आपका शास्त्र क्या कहता है बाबा? बाबा मौन थे। बस
लगातार संतो बोले जा रहा था। यानी बाबा, मैंने जो प्यार किया वह भी नहीं
मरेगा? लेकिन मेरा प्यार तो दम तोड़ दिया बाबा। इसका क्या मतलब? प्यार आत्मा
नहीं है? प्यार मरणशील है? क्योंकि प्यार होता है यानी जनमता है तो वह फिर
मरेगा भी। यही कहना चाहते हैं बाबा?
पेड़ के नीचे ही अपनी धुनी रमाए बैठने वाले बाबा को संतो ने पकड़ लिया था।
बाबा चाह कर भी उससे अपना पिंड़ नहीं छुड़ा पा रहे थे। बाबा! ईशोपनिषद्् में
यही कहा है न कि आत्मा जगत् में मौजूद हर चल- अचल वस्तुओं, जीव-जंतुओं आदि
में होती है। इसका मतलब यही हुआ न कि चाकू, ब्लेड, रस्सी हर चीज में आत्मा
है। हमारी नस- नाड़ियों में भी वही आत्मा वास करती है। जब तक आत्मा ब्लेड़ या
रस्री में है तभी तक वह आत्मा हमारी नस- नाड़ियों में बहने वाली आत्मा से
अलग है। पर हम बाबा आत्मा को अलग करने वाले कौन होते हैं? बस बाबा। बस। मैं
समझ गया।
पेड़ और सड़क के किनारे खड़ा पोल यहां तक कि चायवाला, बस का कंडक्टर सब की
नजरें बस एक चेहरे की तलाश में खामोश थीं। लेकिन वह चेहरा कहीं नहीं मिला।
अचानक नहीं गायब हुआ था संतोष। बल्कि गुप्ता जी ने उसे सड़क से उठवाया था।
सभी तो उसके साथ थे। लेकिन कोई भी साथ नहीं था। या सभी के होते हुए भी किसी
का नहीं था। वह सबसे अलग था। पेड़ से लिपटकर भी पेड़ को अपना न बना सका। शायद
अपना बनाने की कला उसे नहीं आती थी।
‘वह सब के बीच रह कर भी किसी का न हो सका।’
पेड़ ने ज़रा हिलते हुए अपनी बात रखी।
‘जब तक जहां रहा लोगों ने उसे चाहा भी और नापसंद भी किया।’
‘वह लोगों को तो हंसाता था, लेकिन कब लोग उसकी बात पर पीठ पीछे हंसते उसे
मालूम ही नहीं चलता।’
पेड़ अपनी बात गोया वहां खड़े लोगों को बताना चाहता हो।
जब भी दूर चला जाता उसे याद करने वाले बेहद ही कम लोग होते। जो याद करते वो
बस इसलिए कि सीधा-साधा इंसान है। आज की चाल से बेखबर।
किसे पता चल पाया कि आखिर के दिनों में उनके बीच क्या पसर गया था कि वो साथ
होते हुए भी एक फांक के साथ रहे। संतो को जब भी उसकी बात याद आती
‘तुमने मुझसे जो वायदे किए थे कि मैं ये कर लूंगा, वो कर लूंगा। मैं तो वही
देख रही हूं। लेकिन मुझे नहीं दिखता। मैं ऐसे पिछड़े इंसान के साथ नहीं रह
सकती। मैं जीवन में सफल व्यक्ति के साथ शादी करना चाहती हूं। तुम जैसे
स्टील स्टगलर के साथ अपना जीवन बरबाद नहीं कर सकती। जब मुझे अच्छे लड़के मिल
सकते हैं, बल्कि मिल रहे हैं। तो फिर मैं क्यों तुम्हें लूं ? मैं उसे
क्यों न लूं जिसकी अच्छी सेलरी, लाइफ स्टाइल और समाज में एक स्थान है।
तुम्हारे पास मुझे देने के लिए है ही क्या। सिवाए शब्दों के।’
संतो जब बेचैन होता तो सीधे बाबा के पास पहुंच जाता। अपनी पूरी टीस उनके
सामने खोल देता। बाबा को उसने यह सब क्यों बताया यह तो संतो ही बता सकता
था। लेकिन बाबा के पास बैठ कर कुछ देर वह सांस ले पाता था। शायद यह एक वजह
हो कि संतो अक्सर चुप रहता। बस उतना ही बोलता जितने से काम चल जाए। यह तो
उसे भी खुद मालूम था कि जो उसने बोला वह पूरा नहीं कर पाया। और देखते ही
देखते दस साल कैसे गुजर गए उसे एहसास बहुत बाद में हुआ। जब पानी नाक तक छू
चुका था।
और अंत में वह बेखबर ही रह गया। उसके लिए भी जिसको उसने अपने करियर,
जिंदगी, रिश्तों और सबसे अलग और खास माना। उसे जिन दिनों करियर बनाना था,
जिंदगी संवारनी थी। उसने इन पर ध्यान देने की बजाए उसे खुश रखने, मिलने-
जुलने और गैरजरूरी चीजों में लगा रहा। यही कारण था कि वह उससे भी छिटकता
चला गया। दूर जाने या होने की शुरुआत कब हुई इसका एहसास तब हुआ जब हाथ से
तोता उड़ चुका था।
उसने संतो को धोखे में कभी नहीं रखा। शुरू से ही कहा करती थी कि जब तुम सफल
हो जाओगे तब शादी करूंगी। नहीं कर सके तो उसमें तुम दोषी होगे मैं नहीं। अब
काफी वक्त गुजर चुका है। इंतजार की मेरी अपनी सीमाएं हैं।
‘सुन रहे हो संतो!’
गोया संतो के पांव के नीचे से जमीन खिसक गई हो। बस पलकें जल्दी-जल्दी
मटमटाने लगा था। उसने बीच में टोका भी, ‘क्या हुआ गुस्सा आ रहा है?’
‘बोलो अपनी बात भी रखो।’
लेकिन वह एक ही बात पर अटक गया था। ‘मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता। मुझे
अकेला मत छोड़ो। तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी का कोई मतलब नहीं।’ और
बोलते-बोलते सांसे तेज हो जातीं। आवाज तेजी के साथ लड़खड़ाने लगती।
‘क्या हुआ तबीयत तो ठीक है? मैं तुम्हें दुखी नहीं देख सकती। लेकिन
तुम्हारे साथ रहना मुश्किल है।’
डसकी आवाज और शब्दों में स्थिर चित्त की झलक मिल रही थी। कभी समझाने की
कोशिश करती तो कभी थोड़ी कड़ाई से बात रखती,
‘रोने या प्यार की भीख मांगने से नहीं मिलता। जितना मैं साथ दे सकती थी।
मैंने दिया। लेकिन अब जी भर चुका है। वैसे मैं तुम्हारे साथ हमेशा हूं।
बेशक तुमसे शादी न करूं।’
‘चलो मैं देती हूं कुछ और समय। लेकिन जो पिछले दस साल में नहीं कर पाए क्या
भरोसा है कि दो तीन महीने में वो सब कुछ कर लोगे। कोई कारू का खजाना मिल
जाए तो शायद सोच भी सकते हैं। बस मैं इसलिए समय दे रही हूं कि कल को मुझे
दोषी न ठहराओं की मैं छोड़ कर चली गई। बल्कि इसके जिम्मेदार तुम खुद होगे।
वैसे भी किस मुंह से मुझे कोसोगे, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि मैंने कितना
त्याग किया। लाइफ में मैंने कभी समझौता करना नहीं जानती थी। लेकिन तुम्हारे
साथ रह कर मैं समझौता और पैसे की कमी में कैसे घुट घुट कर जीया जाता है यह
जरूर भोग चुकी हूं। वैसे तुम किस मुंह से मुझ से शादी की बात करते हो। ज़रा
अपने दिल पर हाथ रख कर पूछो कि क्या तुम्हारे साथ मुझे शादी करनी चाहिए?’
अंतिम समय में उसके और संतो के बीच इन पंक्तियों ने बसेरा बना लिया था। जब
भी संतो को उसकी बातें याद आतीं बस अचानक बैठे-बैठे आंखों से झर-झर आंसू
बहने लगते। बहुत पूछने पर भी कुछ नहीं बताता था। बस बस स्टैंड की ओर मुंह
किए एक टक देखता रहता। कि शायद वो उसी स्टाॅप पर किसी दिन उतर कर उससे
मिलने आएगी। लेकिन संतो की टंगी निगाहें अंत तक वैसी ही टंगी रह गई।
पेड़ चुप। चैराहे के खम्भे पर जलती वेपर लैंप खामोश था। चाय की दुकान पर
सुबह बैठने वाले भी चाहते थे कि कुछ तो पता चले क्या हुआ संतो को? चारों ओर
नजरें दौड़ाने के बावजूद भी वह चेहरा नजर नहीं आया। उसकी मैली कुचैली चादर
और फटे कपड़े डाल पर टंगे फड़फड़ा रहे थे।
पेड़ ने अपने झड़े पत्तों और फिर पतझड़ के समय अपनी नंगी डालें दिखाते हुए
संतो से बड़ी ही आत्मीयता से कहा था,
‘इंतजार कर संतो, देखना फिर मेरी डालें हरी- भरी हो जाएंगी।’
‘बसंत फिर इन डालों से लिपट अटखेलियां करेगी।’
‘मुझे देखो, कितनी खरोचें, घाव, वार सहता हूं। लोग अपनी पेट की आग बुझाने
के लिए या पैसे की लोभ में काट कर ले जाते हैं। लेकिन फिर भी तन कर खड़ा
हूं।’
‘मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन मेरे सूखे डालों पर भी हरियाली छाएंगी।’
लेकिन संतो के दिमाग में एक ही बात बार-बार कौंध जाया करती जो उसने आखिरी
मर्तबा उसके मुंह से सुना था- ‘किसी के लिए मर तो नहीं जाओगे। लाखों लोग
मरते हैं। लेकिन उनके साथ कोई मरता तो नहीं।’ ‘तुम अपनी लाइफ बरबाद मत करो।
तुम भी किसी से शादी कर लो।’
‘साथ रहते- रहते तो इंसान को पत्थर, पेड़- पौधों से भी प्यार हो जाता है।
फिर वो तो इंसान होगी। वो भी तुम्हें बहुत प्यार करेगी।’
‘मुझ में ऐसी क्या खास बात है जो मेरे पीछे पागल की तरह कर रहे हो।’
‘औरत सिर्फ औरत होती है। पहली दूसरी महज संख्याएं बदलती हैं। भावनाएं कहां
बदल पाती हैं। हर औरत को पति के सामने बिछ जाना ही होता है।’
’औरत की इच्छा हो न हो यह मायने नहीं रखता। वह अपने पति को मसलने, मरोड़ने
निचोड़ने से कभी रोक नहीं पाती।’
‘फिर तो शारीरिक बनावट और प्रकृति है आगे जो भी घटता है उसमें औरत को साथ
देना ही पड़ता है।’
‘मैं भी तुम्हें भूल नहीं सकती। जब तक सांसें चलेंगी तुमसे दूर नहीं हो
सकती। लाख मैं दूर रहूंगी, लेकिन तुम्हें दुखी नहीं देख सकती।’
जब- तब संतो एकांत में जोर- जोर चिल्लाने लगता-
‘तुम अपना निर्णन लेने में स्वतंत्र थी। तुम्हें जो अच्छा लगा वो तुमने
लिया। मैं भी अपनी जिंदगी के फैसले लेने में आजाद हूं। मैं किसी और के साथ
अब नहीं बांट सकता।’
उसकी इन एकल संवादों को सुनने वालों में कुत्ता, पेड़, लैंप, बस स्टैंड होते
थे जिसे सुनना था वही नहीं थी।
‘ओफ्!’
अब तो संतो की ईट से लिखी सड़कों पर कुछ तारीखें, कुछ घटनाओं का वर्णन शेष
रह गए हैं। उसे कुछ भी परवाह नहीं रहता। जब वह बीच सड़क पर लिखने में तल्लीन
होता। गाड़ियां लाख हाॅन बजातीं रहतीं, लेकिन तब तक वह अपना लेखन नहीं छोड़ता
जब तक पूरा नहीं कर लेता। कहने को वह मानसिकतौर से विक्षिप्त- सा था। लेकिन
बिना किसी वजह के किसी को भी गाली- गलौज नहीं करता था। लोग उसे वकील कहा
करते थे।
कभी- कभार बाबा रामदेव को कहीं नवली चालन करते देखा होगा सो कभी सुर पकड़ता
तो नवली करने लगता। साथ ही रोज़ वह जगदीश की चाय दुकान पर प्लास्टिक का मग
लेकर हाजिर हो जाता।
काफी दिन तक उसकी मिट्टी पड़ी रही। पिछले पंद्रह दिनों से किसी ने उस बाॅडी
का क्लेम नहीं किया था। सो पुलिस भी परेशान कि इस बाॅडी को कब तक रखें।
सोलहवें दिन पुलिस क्रिमेशन करने वाली थी। लेकिन उसकी लाश इतनी भी खराब
नहीं थी कि अपरिचित लोगों के हाथों पंचतत्व में विलीन हो। गुप्ता जी को
किसी ने बताया अस्पताल में एक लावारिश लाश पड़ी है। हो न हो संतो हो। बस
इतना सुनना था कि गुप्ता जी सब कुछ छोड़कर अस्पताल पहुंच गए। पुलिसिया
कार्यवाई के बाद चेहरा देखा जो वीभत्स हो चुका था। कोई भी पहचान नहीं सकता
था। अचानक गुप्ता जी को उसके दाहिने हाथ पर लिखा नाम दिखा उसके बाद उन्हें
ज़रा भी शक नहीं हुआ कि यह संतो नहीं है।
जब दाहसंस्कार के लिए श्मशान घाट जाने की बात आई तो चार कंधे तैयार नहीं
हुए। सभी बहाना बना कर पीड़ छुड़ा गए। बहुत देर बाद एक रिक्शा वाला ब्रजमोहन
ने कहा,
‘क्या किस्मत थी संतो की कि अंतिम यात्रा पर जाने के लिए चार कंधे भी
मयस्सर नहीं।’
और सिर पर अंगोछा बांध कर खड़ा हो गया।
दाह संस्कार के बाद गुप्ता जी ने विधिवत मुंड़न कराया। जितना बन सकता था
उन्होंने संतो के लिए किया।
वैसे सब यही सोचते थे कि आखिर गुप्ता जी यह सब क्यों कर रहे हैं? संतो आखिर
उनका लगता ही क्या था? लेकिन इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं था। शायद
उन्होंने एक दुकानदार का फर्ज निभाया था।
जब संतो अच्छा भला था तब वह उनकी दुकान से उसके लिए चाॅक्लेट, बिस्कुट आदि
खरीदा करता था। उनकी दुकान पर लगा टेलिफोन गवाह है कि उसने कौन- सी घटना
यहां साझा नहीं की थी। घर-परिवार, अपनी लाइफ की प्लानिंग वगैरह वगैरह।
कहीं और जा कर भी कहां पहुंचा/दूर जा कर भी यहीं कहीं भटकता रहा/प्यार में
संवरा तो नहीं/बिखरता ही रहा/कभी खुद पर हंसता रहा/खिल्ली उड़ाता रहा/लेकिन
उसे न हंसा सका। भाग कर भी क्या जा सका कहीं/न उससे दूर जा सका/न स्मृतियों
से मिट ही सका।