तुम्हारे अभिशाप को..‏रामबाबू गौतम


कामनाओं को अपनी मनोभावनाओं में पिरो,
काश: उमडती हुई शिथिलताओं में जी लेता |
जिन्दगी को अविराम सा बनाकर
तुम्हारे अभिशाप को उसमें सजा लेता ||
निकली हुई इन आवाक- अनदेखी रेखाएँ,
बहीं हों वहाँ अनगिन-अवतरित ये धाराएँ,
रोक लेता- मैं आधार दे उन्हें कोई नया सा
उभरते दृग और नयन की अनुपम सीमाएं |
साथ होती वह हर शाम- हर दुपहर पाकर
मनुहार कोई तो होती जिसे अपना बना लेता ||
तुम्हारे अभिशाप को उसमें सजा लेता..
बचपन की इस वासना - वात्सल्य को छिपाया कहाँ,
मानो उधार का हो सिंदूर जिसका कर्जा चुकाया कहाँ,
भीगते रहे हैं पलक अब भी उन गुनाहों को लेकर
तुम्हारा ही था सब कुछ मुझमें वह समाया कहाँ,
नदी होती जो सूखती- बाढ़ लाती उसमें बहाकर
किसी भी तट- किसी किनारे घोंसला बना लेता ||
तुम्हारे अभिशाप को उसमें सजा लेता..
दर्द- वेदनाएं मानो इन भावनाओं का शीतकाल है,
तपन मिली न वादियों के गुहार का प्रातःकाल है,
समीपता- सजग हिमखंड और उठता उर- ज्वर हो
चुभन कसकती ये खड़ी द्वार मानो ठिठुरता द्वारपाल है |
मुमकिन था समावेश ऊँचाइयों-गहराइयों को पाकर
पिघलती- वर्फ को धरा पर बहा आधार बना लेता ||
तुम्हारे अभिशाप को उसमें सजा लेता …
संयोगवस नियंत्रित होती रहतीं हमारी सब व्यथाएं,
अमावस- धरा की तिमिर को तोड़ जगाती नव- प्रथाएं,
सुनने के लिए सब उल्हाने खड़ा मिलता द्वार कोई
कसक भी सिमटती धरा-गगन की लेकर आस्थाएं |
मुक्ति के निर्झर पल सिसकते न इस धरा पर आकर
विश्वास के जो नरम-गरम आघात मिलते सह लेता ||
तुम्हारे अभिशाप को उसमें सजा लेता …
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