अनिन्द्रा

कभी चोंक कर नींद रात को खुल जाती है,
तारे गिनते रात गुज़र जाती है।

चंदा पर पृथ्वी की छाया, चांद का टुकडा,नज़र न आया।
जब जब कोहरा मन पर छाया,चंन्द्र गृहण होने लगता है,
तभी, चौंक कर नींद रात को खुल जाती है।

कभी पुराने दुख या आने वाले डर,
चेतना विहीन सा तन होने लगता है।
रोज़ नहीं ऐसा होता है़,
पर जब भी होता है,असहनीय सा होता है।
सारा जग क्यों सोता है,
जब मेरा मन रोता है,
यही प्रश्न तो पलकों पर होता है,
तभी चौंक कर नींद रात में खुल जाती है।

चिड़ियों के कलरव से,
मन विभोर होता है,
निराधार थे डर रात के,
भोर यही कहता है।
पर,जब टूटा है विश्वास भोर का,
तभी,चौंक कर नींद रात में खुल जाती है।

और वही होने लगता है जो होता आया है,
सकारात्मक सोच पर बादल की छाया,
नकारात्मक मन जब जब होने लगता है,
तभी,चोंक कर नींद रात में खुल जाती है।

सुबह सुनहरी कब आयेगी,
घड़ी की लय से, प्रश्न यही उठता है।
प्रश्न घड़ी से करते करते,
उत्तर अँतर से मिले लगता है।
नींद का डेरा पलकों पर,
सजने लगता है।

नाम - बीनू भटनागर

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