हमारे दिलों की गहराई में प्रेम है
अथाह प्रेम !
प्रेम से उपजी है सृष्टि
स्थित है प्रेम में
प्रेम में ही समा जाती है !
जैसे नन्हा शिशु
प्रेम के कारण जन्मता है
संवर्धन भी होता प्रेम से
क्षरण भी संभव है तो कारण यही !
और ‘आत्मा का सूरज’ द्रष्टा है
इस चक्र का
जन्म और मृत्यु घटते हैं
आत्मा के क्षितिज पर
दिन-रात की तरह !
सूर्य सदा एक सा है
स्वयं प्रकाशित
स्वर्ण रश्मियों को निरंतर प्रवाहित करता
आत्मा के सूरज से भी
फूटती हैं रसमय किरणें
जो भिगोती हैं दिलों को
तभी प्रेम है भीतर
अथाह प्रेम !