सुधीर मौर्या "सुधीर'
बारिश को देखती
वो कमसिन लड़की
हाथ बड़ा कर
पानी की बूंदों को
कोमल हथेलियों में
इकट्ठा करती
फिर ज़मीं की जानिब
उड़ेल देती
में उसके पास जाकर खड़ा हुआ
तो एक अंजुली पानी
मेरे चेहरे पर फेक कर
खिलखिलाती हुई
अंदर भाग गई
लाल जोड़े में
वो जब डोली में बेठी
आँखों से उसके अश्क बरस रहे थे
आज उसने
अंजुली में इस बारिश
को इकटठा नहीं किया
आज मुझसे कोई शरारत नहीं की
आज न जाने क्यों, मुझे
ये बारिश अच्छी नहीं लगी.)