बसन्त


किसलय की कोमल पंखुडियाॅ,
लद गयी मधुर रस भारों से।
अधखिली कली शोभा पाती,
मधुकर के बहु गुंजारों से।।
बहुरंगों में रंग गयी धरा,
सज गयी है हीरक हारों से।
नभ चन्द्र छटा छवि छहर उठी,
जगमग करती है तारों से।।
श्वेताम्बर धारण कर बैठी,
चन्द्रिका स्वच्छ नीलाम्बर में।
गत हुयी निशा निकसी ऊषा,
स्वर्णिम आभा पीताम्बर में।।
औचक आगमन किया ऋतुपति,
उमगे अनंग हर अंगन में।
यौवन मद का संचार हुआ,
तरूणी तिय अंग तरंगन में।।
प्रिय का प्रवास जिय जार रहा,
पपिहा की सुन पिव पिव वानी।
रति रंग अनंग लखाई रहा,
कोयल कुहूके कल रस खानी।।
प्रिय मिलन की आस लिये मन में,
विरहिन बैठी शंृगार किये।
प्रियतम आया है सपने में,
निज कर में हीरक हार लिये।।
ऐसे में ‘नन्द’ रसिक प्रियतम,
त्यों मघ्य निशा में आ ही गया।
अंतर की जलन मिटी क्षण में,
रस कलश सुरस छलका ही गया।।

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