सचमुच खोया वक़्त, सोये देर तक
इधर उधर की बांते, गप्पे देर तक
उम्र बढ़ गई, मायूसी दूर तक
जागे अब, अफसोश कंहा तक
लोग सभी जगा-जगा कर हारे,
ऐसी नींद हमारी, सोये रहे प्यारे .
लोगों की सज गई फुलवारी
हमने अभी तक की नहीं तैयारी
सब कुछ अपने हांथों से डुबोए ।
फुलवारी कंहा से होए, बीज जो न बोये
कल की फ़िक्र नहीं, आज का ज़िक्र नहीं,
इतिहास की बात क्या, समय रुकता है कंही ?
अब अस्थिर मन में, बेचैनियाँ
और चीख़ना -सोना नहीं ! सोना नहीं !
अपमान भरे आँसुओं में डूब कर जब जगा
मर गई नींद, उम्र भर का रतजगा !
:-सजनकुमार मुरारका