भीर भावना क़ी


मै अकेली नहीं होती हू कभी
एक भीतर ,
अपने तीव्र ध्वनि के चरम पर
चीखते हुए-
मुझमे वास करती है
भीर में कभी कभी
सट जाते हैं कान कई
फैल जाती हैं अफवाहे
भीर में दब जाती हैं कई बार निरीह दारुण आहे
ठोकरों से टूटी हैं नाक
कभी कभी सटे हुए आपस का सीना
फरफरा उठता है
कभी भीर क़ी शिकस्त में
नेचे क़ी और लटके हुए
निष्क्रिय और लचर हो उठते हैं हाथ
भीर में हम दौड़ नही सकते
बस एक दुसरे पर पटकते हैं सर
फरफराहट में सास लेने के लिए
भीर दौड़ती नहीं कभी
बहते हुए खून वाले व्यक्ति क़ी और
भीर में हर एक दिल का दम फरफरता है
भगदर में निकल चुके दम पर
कोई तरस नहीं खाता है
क्या साथ देंगे मेरा भीर में रह कर एकाकी सोच वाले ?
साथ लू उनका-
जो-
मेरी तरह अपने ह्रदय में भीर पाले
---- नंदिनी पाठक झा

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