(१४ अगस्त को अलीगढ में किसानो पर की गयी बर्बरता पर लिखी गयी कविता )


बिना शीर्षक

मौत का अर्थ
दृश्य का लुप्त हो जाना नहीं है
और अगर तुम
लुप्त हो भी गए तो
मुझे अफ़सोस नहीं
तुम्हारी गुमसुदगी भी
एक परचम है
गरीब के हृदय के लिए ;

तुम्हारा जाना
एक शाम हो सकता है
की फिर सुबह होगी
फिर धुँआ उठेगा
फिर आग सुलगेगी
और बन जाएगी मशाल ,
पथ पर उतरे
जन सैलाब की/मुठ्ठिया तन जाएँगी
दुश्मन की छाती पर ;

किसान के औजार
बन जायेंगे हथियार
गरीब की रोटी की भी होगी
अग्नि परीक्षा
नंगे बच्चो का शरीर
मिटना ही है तो मिटेगा,पर
बेगार के लिए नहीं
खुनी सियासत के लिए ;
अनाज पककर होगा लाल
की मजदूर की आँखें स्याह लाल
नारी की चीत्कार की
कहाँ गए उसके लाल;

अब पाना होगा जो कि नहीं है
अब खाना होगा जो कि नहीं है
अंधकार के बादल छटेंगे
अब उजियारा होगा
तुम्हारी मौत व्यर्थ नहीं जाएगी
कि तुम्हारी गुमशुदगी भी
एक परचम है.
संदीप तोमर

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