Yashvant Verma
चलते चलते राहों में हम कहाँ आ गएँ हैं
जैसे राहें खो गयी है,जब मंजिल पा गए है.
चले थे संग में,जो कुछ लोग अपने
कुछ पीछे रह गए है ,जो रास्तो में सो गए है.
हाथो से फिसल के,कुछ पीछे छुट गए हैं
कुछ दिल में बस गए है,कुछ हमसे रूठ गए हैं
की जैसे यादें उनकी इस दिल में बस गयी है.
की जैसे तनहा अकेले से हम हो गए हैं
जैसे अपने हमारे,कुछ हमसे खो गए हैं
जब से चलते चलते हम यहाँ आ गए हैं
जैसे राहें खो गयी है,जब मंजिल पा गए है,
कुछ चाहें बदल गयी है,कुछ दिल में मचल रहे हैं
जैसे खुद ही लड़खड़ा के,अब खुद ही सम्हल रहे हैं
चल पड़े जिस राह पे,अब वो ही सही है.
जो ख्वाब टूटे उनपे,अब नज़र भी नही है.
भरनी है क्या अब भी ऊँची उड़ाने,की थम जाए यूँ ही आशियाना बनाके.
आखो में सपने कुछ और भर ले,या सो जाये बस अब ठिकाना बनाके
थक से गए है,खुद से लड़ लड़के ,अब तो खुद से ये बहाना बना ले.
अब भी जी रहे है यूँ अंजान बन के,अब तो किसी को निशाना बना ले,
दुनिया के मेले में हम खो से गए हैं
जब से चलते चलते हम यहाँ आ गए है,
जैसे राहें खो गयी है,जब मंजिल पा गए हैं,