चिड़ियों के साथ

घर का एकाकी आँगन

और अकेली बैठी मैं

बिखरे हैं सवाल ही सवाल

जिनमें उलझा

मेरा मन और तन !

अचानक छोटी­-सी गौरैया

फुदकती हुई आई

न तो वह सकुचाई

और न शर्माई,

आकर बैठ गई

पास रखे एलबम पर

शायद दे रही थी सहारा

उदास मन को !

मैंने एलबम उठाई

और पलटने लगी

धुँधले अतीत को

खोलती रही पन्ना- दर- पन्ना

डूबती रही पुरानी यादों में !

मुझे याद आईं अपनी दादी

जिनका व्यक्तित्व था सीधा- सादा

पर अनुशासन था कठोर

उनके हाथों में रहती थी

हमारी मन­-पतंग की डोर

जिनके राज्य में

लड़कियों को नहीं थी

पढ़ने-लिखने की

या फिर खेलने की आज़ादी

जब भी पढ़ते-लिखते देखतीं

पास आतीं और समझातीं

”अपने इन अनमोल क्षणों को

मत करो व्यर्थ

क्योंकि ज़्यादा पढ़ने-लिखने का

बेटी के जीवन में

नहीं है कोई अर्थ,

और फिर पढ़-लिखकर

विलायत तो जाएगी नहीं

घर में ही बैठकर

बस रोटियाँ पकाएगी !’

लेकिन मैं चुपके-चुपके

छिप-छिपकर पढ़ती रही

आगे बढ़ती रही

और एक दिन चली गई

विदेश-यात्रा पर

दादी आज नहीं हैं

पर सुन रही होंगी मेरी बातें

वो अपनी पैनी दृष्टि से

देख रही होंगी

मेरी सौगातें !

चिड़िया उड़ी और

बैठ गई मुँडेर पर

देने लगी दाना

अपने नन्हे-नन्हे बच्चों को !

2.

एलबम का

दूसरा पन्ना पलटा

याद आया दादी का गुस्सा

और चश्मे से झाँकतीं

दादी की बड़ी-बड़ी आँखें

लड़कियों का आराम से लेटना

या किताब लेकर बैठना

उनको नहीं भाता था

यह सब देखकर उन्हेँ

बहुत क्रोध आता था !

पंखा बंद ताकि हम

पसीने में नहाएँ

बिजली बंद ताकि हम

किताब में न झाँक पाएँ !

उस समय

उनके कठोर व्यवहार से

असहनीय पीड़ा होती !

टूटे पेड़-सी असहाय मैं

झर-झर बहते आँसुओं से ही

मन की पीड़ा धो लेती !

पर आज सोचती हूँ

कि उस समय

दादी की कठोर वाणी

यदि न सही होती

तो आज नहीं मिल पाता

इतना पुख्ता आधार

कि ससुराल आकर

झेल पाती आपदाओं को

दादी नहीं हैं

पर उनकी उपस्थिति

आज भी भिगोती है तन-मन

उनकी गुर-गंभीर वाणी

गूँजती है घर-आँगन में

मन करता है प्रणाम बारंबार

उनके उसूलों को

क्योंकि बनाया है उन्होंने

मोम-से तन-मन को फौलादी

कि चल सकूँ काँटों पर भी

बिना डगमगाए

ढो सकूँ पत्थर-रिश्तों को

मजबूती से

और जीवन-पथ पर

अडिग खड़े होकर

यदि लड़ना पड़े तो लड़ सकूँ

लड़ाई अपनी अस्मिता की !

3.

गौरैया फुर्र से उड़ गई

आकाश की ओर

बादलों से बातें करने

विचारप्रवाह टूटा

एलबम का तीसरा पन्ना खोला

डूब गई पुरानी सजल

मासूम यादों में !

जब मैं मात्र साढ़े सात साल की थी

माँ गई थीं यात्रा पर

यात्रा थी बड़ी कठिन

लम्बी और दुरूह

विदाई के समय

भजन और मंगलगीतों से भीगा

पर उदास वातावरण

सहमा घर का आँगन

सूनी घर की पौरी

दादी के मुख से

आशीष की अजस्र धारा

आखों से छलकते अश्रु

भाई-बहिनों की

माँ को निहारतीं

उदास, मौन और सजल आँखें

कह रही थीं

अपनी ही भाषा में कुछ-कुछ !

माँ की आँखों ने

पढ़ा हमारे मन को

पास आकर सहलाया, दुलारा

जाते समय माँ ने दिया

मुझे और मेरी बड़ी बहिन को

आठ आने का एक-एक सिक्का

और मेवा से भरा हरे रंग का

टीन का छोटा डिब्बा ,

मेवा के साथ-साथ

भरा था जिसमें

माँ का प्यार-दुलार

और माँ की अनगिन यादें !

एक रेशमी रूमाल

जिसमें बँधा था डिब्बा

उस पर छपा हुआ था

सन् उन्नीस सौ अड़तीस के

बारह महीनों का कलैंडर !

डिब्बा और रूमाल

मेरे अनमोल खजाने में

आज भी हैं सुरक्षित !

आज भी माँ के शब्द

गूँज रहे हैं कानों में---

‘ बेटी ! जब मन करे

दोनों बहिनें मेवा खा लेना

पैसों से कुछ ले लेना

पर हाँ ! दादी को मत बताना,

किसी को परेशान भी मत करना,

मैं जल्दी ही यात्रा से आ जाऊँगी !’

सवा साल की मेरी छोटी बहिन

गई थी माँ के साथ यात्रा पर

मेरा मन भी डोला साथ जाने को

पर मुझे छोड़कर चली गईं माँ !

जाने के बाद

कभी लौटकर नहीं आईं

उड़ गईं हरियल तोते की तरह,

क्रूर नियति ने

छीन लिया माँ का दुलार,

कर दिया मातृविहीन !

आज जब भी आती है

माँ की याद

डबडबाती हैं आँखें

डगमगाते हैं क़दम

लड़खड़ाता है मन

किंतु माँ के द्वारा दिए गए

मेवा के डिब्बे की हरियाली

कर देती है मन को हरा,

और जब भी खोलती हूँ उसे

तो स्मृतियों के बादल

उड़ने लगते हैं मेरे इर्द-गिर्द

वे थपथपाते हैं मुझे

दिखाते हैं राह

जगाते हैं हिम्मत

विषमताओं में जीने की !

जब देखती हूँ रूमाल

तो माँ की मीठी-मीठी यादें

लगती हैं गुदगुदाने

समय की मार झेलते-झेलते

हो गए हैं रूमाल में अनगिन छेद

मैं उन छोटे-छोटॆ छेदों से

नहीं रिसने देती हूँ रेत बनी

अपनी मासूम स्मृतियों को

और पुनः रख लेती हूँ सहेजकर

अपने मन की अलमारी में !

4.

एलबम के अगले पन्ने पर

मैं हूँ और मेरे बड़े भाई

फिर मन लौट गया

अतीत की सँकरी पगडंडियों पर

याद आई भाई की

कठोर अनुशासनप्रियता

बात-बात पर डाँटना-मारना

या फिर दुतकारना

इसमें नहीं था

उनका कोई दोष

यह तो था शायद

उस समय की

सामाजिक व्यवस्था का खोट,

जो बेटे और बेटी में

रखती थी भेददृष्टि

दादी के लाड़-प्यार ने

बना दिया था भाइयों को

कुछ ऐसा ही !

हर विषम परिस्थिति का

हिम्मत से मुकाबला करना

आदत बन गई थी हमारी !

हमने समझाया मन को

कि हर विषम परिस्थिति का

हिम्मत से करे मुक़ाबला

और न टूटने दे स्वयं को !

5.

अगला पन्ना पलटा

देखा,घूँघट निकाले

दुल्हन बनी नादान-सी

नाजुक-सी मैं

आई हूँ ससुराल

जहाँ मुझे जानना था सबको

मन मैं थी एक आस

बनने की एक आदर्श !

किया प्रयास

सहा भी सब कुछ

जुटी रही पढ़ाई में

झाड़ू-पोंछा, कपड़े धोना,

खाना बनाना,

कोयले तोड़कर अँगीठी सुलगाना

चूल्हे में रोटी सेकना

बडों की सेवा करना

साथ में पढ़ाई की सीढ़ियाँ चढ़ना !

सब कुछ किया

पता नहीं सबको

संतुष्ट कर पाई या नहीं

ससुराल में सभी को दे पाई

प्रसन्नता या नहीं ?

आज भी प्रश्न

मन में कौंधता है !

6.

एलबम के आगे के पन्ने पर

बेटियों के चित्र थे

जो बोल रहे थे गुप-चुप

सुन रहे थे मन की बातें

उनकी मुस्कुराहट

घोल रही थी मिसरी-सी मन में !

मीठे दिनों की मीठी मिठास

आज भी देती है तृप्तिबोध

मैं खुद भी पढ़ती रही

और बेटियों को भी पढ़ाती रही

जितना जानती थी उससे अधिक

सिखाने की कोशिश करती रही,

सीमित साधनों में भी

बाँटती रही सुख की सुवास,

बेटियों के मन में

भरती रही नई आस,

नया उल्लास और नया विश्वास !

कहीं उनसे मन की बातें

उनकी भी सुनीं ,

दोनों की धूमधाम से

शादी भी कर दी !

बेटियों की विदा के बाद

रह गई अकेली

जब भी होती थोड़ा उदास

बेटियाँ समझातीं----

’माँ ! कहाँ हो तुम अकेली,

तुम्हारे साथ है

तुम्हारी लेखनी सहेली !’

तब से अब तक

एकाकी रात हो

या फिर ऊब भरा दिन,

तपन भरी दुपहरी हो

या हो सुरमई शाम,

या फिर तड़पती अँधियारी रात

बना लेती हूँ मैं लेखनी को

अपनी प्यारी सखी !

करती हूँ उससे अंतरंग बातें

क्योंकि बेटियों की तरह ही

कलम भी देती है ठंडक

भर देती है एकाकीपन !

बेटियों के मधुर बोल की तरह

देती है सहारा टूटे मन को,

समेट देती है

बिखरे जीवन को,

शांत करती है

मन में उठने वाले तूफाँ को !

आज भी जब कभी

सुनती हूँ कोई कठोर शब्द

टूट जाती हूँ पूरी तरह

मन होने लगता है तार-तार

आँखें रोती हैं जार-जार
मन को बटोरती हूँ,
सँभालती हूँऔर फिर

उठा लेती हूँ कलम

याद आते हैं दादी के

कठोर पर अपनत्व भरे शब्द

फिर सोचती हूँ

और समझाती हूँ स्वयं को

सीखो सहना ,

मथना सीखो अंतर्मन को

पर कभी-कभी

मन टूटता है इतना

कि सुनता ही नहीं कोई बात

याद आती हैं बेटियाँ

उनकी ही मानता है मन !

समझाती हैं वे ही,

दुलारती हैं वे ही ,

टूटे,खोए एकाकी मन को

और तन्हा तन को !

गौरैया जो देख रही थी टुक-टुक

फुदक रही थी इधर-उधर

फुर्र से उड़कर बैठ गई

पेड़ की हरी डाल पर,

फुदक रही थी

एक डाल से दूसरी डाल पर

कभी उठाती तिनका

जोड़ती अपने घर में

एक ईंट और !

इस तरह वो

हो जाती मस्त-व्यस्त !

माँ की खुशबू पाकर

बच्चे लगते चहचहाने,
चिड़िया उन्हें चुगाती दाना,
बच्चों के साथ-साथ

झूम-झूम उठती,

मानो कह रही हो

सीखो झेलना
समय की मार को,
सीखो मुस्कुराना
उदास क्षणों में भी!
आँसुओं से कहती हूँ बारंबार
मत करो रेत
अपने अस्तित्व को
थामे रहो आशा की डोर,
कभी गीली न हो
नयनों की कोर।
यदि भिगोना ही है
तो भिगोओ अंतर्मन के
उन भावों को,
जो हैं कठोर,
जो पड़े हैं दबे-कुचले
किसी कोने में,
भावों को भिगोकर
कर दो सबको भाव-विभोर
बस पकड़े रहो जीवन-छोर।
जब भी होती हूँ उदास
या होती हूँ अकेली,
बुला लेती हूँ,अपनी सखी को
अपनी प्यारी कलम को
क्योंकि उसकी उपस्थिति
सहलाती है मेरे बिखरे मन को।
फिर मैं होकर निर्द्वंद्व
फैलाकर भावों के पंख
उड़्ती हूँ ऊँचे-ऊँचे
कल्पना के आकाश में,
और उड़ती ही रहती हूँ
अनंत आकाश में उड़ती हुई
मस्त चिड़ियों के साथ।

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