फ़लसफ़ा-ए-राज़—–संजय कुमार शर्मा “राज़”


“कुछ तेरा कहना ,मेरा सुनना मोहब्बत है,
कुछ मेरा कहना ,तेरा सुनना मोहब्बत है,
औ ग़र कभी किसी रास्ते में हम बिछड़ गए,
तो फिर मिलने की चाहत में ,क़ज़ा सहना मोहब्बत है।
वो तेरा रूठ जाना और मनाने पर फ़िदा होना,
मिले जो दिल से दिल तो फिर मेरी जाँ ! क्या ज़ुदा होना,
बेशक़ रहें हम दूर ज़िस्मों से मग़र ऐ ! जाँ,
हर इक पल आशिक़ी के दिल में घर करना मोहब्बत है।
कभी उसके दिए ग़म का ज़हर पीना मोहब्बत है,
कभी रिसते हुए दिल के ज़ख़म सीना मोहब्बत है,
मग़र ये मौत भी तो इस ज़माने में ख़ुदाई है ,
तो फिर जीते हुए बस आह भी भरना मोहब्बत है।
बेशक़ जीना मोहब्बत है ,दर्द सहना मोहब्बत है,
कभी बेहोश ,कभी होश में रहना मोहब्बत है,
सुना है बाद मैय्यत के ,नसीबों से मिले ज़न्नत,
तो फिर ऐ “राज़” राहे ईश्क़ पे मरना मोहब्बत है।”

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