गरीबी से प्रताड़ित

उस गरीबी से प्रताड़ित
ठेकेदार कि नौकरानी
सड़क पर रोड़े उठाती हुई
बच्चे को गले से लगाती हुई
फटी चुनरी को तान
सूरज से छुपके उसे सुलाती हुई
उस बोतल में गर्म पानी को
जीवन - अमृत समान पिलाये जाती है !
एक पल रुक कर
माथे से पशीना हटाती हुई
जब सूरज को वो देखा करती है
उसके मन में एक ठिस सी उठ जाती है !
चार पहर का खाना खा
उन पत्थरों को हटाने से
गरीबी मिट जायेगी
शायद ये आशा पाले
अपने को तरोताजा बना लेती है !
दिन भर कि हड - तोड़ी मेहनत के बाद
ठेकेदार कि डांट खा
सिर पे बठ्ले में बच्चे को बेठा
थकी - हारी घर को जाती है !
घर पर उस शराबी पति के तानाशाही में
डांट - थपड खा
खुद भूखी रह कर, उसे भर पेट खिलाती है !
सास - ससुर को दवा - दारू पिला कर
अपनी टूटी खटिया पर जा कर
शायद अब पल भर का आराम मिले
इसी ख़ुशी के आंशुयो को
मेली - चुनरी से साफ करती हुई

अकेले कि सो जाती है !!

दीपक कुमार वर्मा  

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