मुठ्ठी की रेत सा
मस्तक के स्वेद सा
मन के किसी भेद सा
छोड़ कर कितने ही अनुत्तरित सवाल
गुज़र गया साल।
जाडे़ की भोर सा
अनचाहे शोर सा
बिन बादल मोर सा
गीत बेसुरा सा भटकी सुर-ताल
गुज़र गया साल।
सूखे हुए ताल सा
उलझे हुए बाल सा
भूखे की लालसा
बुनकर अपने ही गिर्द मकडी़ सा जाल
गुज़र गया साल।
बच्चों के खेल सा
मेल भी बेमेल सा
पुल पर इक रेल सा
चाय के प्याले छोड़ कितने ही उबाल
गुज़र गया साल।
गूंगे की तान सा
अपहॄत विमान सा
चुनावी निशान सा
चलता हुआ जैसे कछुए की चाल
गुज़र गया साल।
-आर० सी० शर्मा “आरसी”