चाह बस अब सबकी एक ही है, लगना है हट के,
गिरते पड़ते, लड़ते झगड़ते, भूले या भटके,
समुंदर में बहते, आसमान में उड़ते या पहाड़ो में लटके,
चाह बस अब सबकी एक ही है, लगना है हट के . . .
जो सब करते हैं, हम वह कर नहीं सकते,
जिन गीतो पर दुनिया नाचती, उन पर हमारे पांव नहीं थिरकते,
जो जगह सबको आती पसंद , हम वहां नहीं जाते,
नये लेखक और कलाकार हमे रास नहीं आते . . .
फीका रंग हमें "क्यूट" लगता और चटकीला कुछ लगता "कॉम्मन"
"जकूज़ी" में डूबकर हम सुकून धुंडते और पूजा पाठ को कहते पागलपन,
जब सड़कों पर बच्चे भूके मरते, हम १४११ बाघों की चिंता करते,
ट्रैफिक पुलिस को हम घूस देते, पर समलैंगिक अधिकार के लिए लड़ते . . .
पिताजी जी को "पा", भाई को "ब्रों" और मित्रों को हम "डीऊड" बुलाते,
जन्माष्टमी की हमें खबर नहीं, पूरा दिसम्बर हम "सांता" के गुण गाते,
चम्मच से हम चावल खाते, और "इंडियन "को कहते "चीप पीओप्ल"
भिखारी देख खिड़की चढाते, और "जय हो "सुन खोलते "बोत्तल "..
चाह बस अब सबकी एक ही है, लगना है हट के,
छोटी छोटी खुशियों को भूल, किसी जटिल सोच में अटके,
खुद से लड़के, लोगों से छुपके, एक अकेलेपन में फसके,
चाह बस अब सबकी एक ही है, लगना है हट के . . .
:-सजन कुमार मुरारका