इतनी निर्भरता ठीक नहीं, मानव में दानव बसता है I
ज्यो-२ ढीले तुम पड़ते हो, उतना ही जकड तुम्हे कसता है II
कंगाल तुम बैठे दिल देकर, जान हीन आत्म अपना,
नींद लुटाई एक हद तक, उसमें भी रहा कोई एक सपना,
पल भर के लिए तुम जुदा थे तो, वो दूर खड़ा वो हँसता हैI
इतनी निर्भरता ठीक नहीं……………………………….II
सांस भी तेरे निर्भर हैं, परछाई बने जिसकी हो तुम,
आंसू में तेरे टपके वो, जब अपने आप तुम घिरते हो,
गिरते हो तुम आज चरण में, जैसे तेरा आपा सस्ता है I
इतनी निर्भरता ठीक नहीं……………………………….II
नज़र में उसको बसा लिया, चक्षु जग हेतु अंधे है,
तुम हो कर रह गए उसके बस, तोड़े सब तूने फंदे है,
गंदे है जन जब में कितने, बचने का बता क्या रास्ता हैI
इतनी निर्भरता ठीक नहीं……………………………….II
अपने को बचाए रखना तुम, सांस आस दिल जान से,
कुछ दूर ही बैठे दुश्मन है, हर तीर चढ़े कमान से,
दुर्गों बेशक ‘मनु’ मेरे में, हर कीमत पर तू जंचता हैI
इतनी निर्भरता ठीक नहीं……………………………..II