कहा, कैसे ना जाने क्यों
हर जगह धधक उठता है
नफ़रत और
शरंडों कि जुआड़बाजी
कैसे जी सकता हूँ
उत्पीडन के माहौल
और भेद भरे जहां में
गफलतो
और
रंजिशों के तार जोड़कर .....
मस्तिष्क पर जोर देने पर भी
कोई चलचित्र नहीं उतरता
किसी की मेहरबानियों का
उतरता भी है तनिक तो
तनिक देर में ही
विष का भान होने लगता है
गफलत और रंजिशो के तार
मज़बूत हो जाते है
आपस में जुड़कर .......
जीना है तो जहर पीना है
जीने के लिए चाहिए भी
क्या ----?
संतोष कि पूँजी
विश्वास का आक्सीजन
बन सकते है ,
पक्के निशाँ काल के भाल पर
संतोष और विश्वास के साथ
माँ-बाप ,गुरु
और
भगवान् को जोड़कर ...........नन्द लाल भारती १८.०१.२०१२

HTML Comment Box is loading comments...
 

Free Web Hosting