पद-सत्ता की आतुरता शान्त तो नही हुई
नही मां को दिया
वचन पूरा कर पाया ।
खैर मां को वचन तो मैने दिया था
कहां किसी मां ने लिया है कि
मेरी मां लेती ।
मां का नाम यानि देना
अफसोस तो है मुझे
मां को कोई सुख नही दे सका
शायद कैद नसीब की वजह से ।
नसीब आजाद तो नही हुई
पसीने से सिंची फसल
ओले-तूफान को सहते
फल लायक बनी भी ना थी
कि मां चल बसी
कई सारे सवाल छोड़कर ।
आज भी मैं संघर्षरत् हूं
श्रम की मण्डी में कोई करिश्मा तो नही हुआ
नही खड़ी हुई मिशाल
हां कद बढा पेट -परदा चल रहा है
मां की तैयार जमीं पर ।
मां का वरदान सौभाग्य है
पद-सत्ता की आतुरता शान्त नही हुई
हो भी कैसे सकती है अदने की ?
जिस जहां में भेद और स्वार्थ का रोग लगा हो
कर्जदार रहूंगा सदा मां का
मां का ही तो आषीश है कि पराई दुनिया में
छूट रहे है अपने भी निशान
देखना कब होती है कबूल जमाने को
मां की भोर की दुआ...................