अलका सैनी
तुम्हारे मिलने से मिली
दिवाकर की वह किरण
जो मेरी आँखों में खोकर
असीम हो गई
सच में
तुम मिली और
मैं उजालों से भर गया
इन अंधेरी रातों में.
मरुस्थल की मरीचिका
क्या कहूँ
तुम ही वह नाम हो
जिसने खोला मेरा
बंद-कमरा .
ओह मेरी प्रिय
आज गुमसुम क्यों हो ?
जिंदगी निस्तेज ?
प्रेम के शुष्क-पेड़
पर पक रहे रक्तबीजों से
रक्तिम यादों के फूलों का
यह बसंत मेरा खूनी होगा ?
कहाँ हो तुम ?
कहो न
इतने दिनों के बाद मिली
फिर गायब
कहाँ-कहाँ नहीं खोजा मैंने
मोबाइल ,जीमेल
फेसबुक ,ऑरकुट से लेकर
हिमालय की तराई तक
सब टटोली मैंने राहें
तुम नहीं मिली .
कितना असहज था मैं
अपनी खटोली में
कहते हुए यह पहली बार
कि करता हूँ
तुमसे प्यार।
जाने कितनी बार
इसे कहने से पहले
चिपकी थी जबान तालू से
और मैं -
न चाहकर भी चुप रह जाता था
और अब
कितना-आसान
सामान्य-सा लगता है
यह कहना
कि
करता हूँ मैं तुमसे प्यार।
याद है-
तुमने कहा था
मुझसे क्या पूछते हो,पूछो ?
कुछ भी नहीं बाकी अब
मेरा यह चुप रहना
और मेरी आँखों का
झुक जाना
लगता नहीं है क्या तुमको
मेरा मौन
समर्पित स्वीकार।
क्या कर सकती हो
अब अंगीकार
मेरा प्यार ?