मेवाड़ के शुष्क धरातल पर,
बन प्रेम का सागर छा गई मीरा।
रेत के ऊंचे से टीलों के बीच,
एक प्रेम की सरिता बहा गई मीरा।
मनमोहन के रंग ऐसी रंगी,
खुद गिरधर में ही समा गई मीरा।
प्रेम के बीज को प्रेम से सींच के,
प्रेम का वृक्ष लगा गई मीरा।
(2)
सास कहे कुलघातिन है,
संतन संग लाज लुटा गई मीरा।
देवर- ननदी सब तंज कसें,
दोनों कुल दाग लगा गई मीरा।
वो सूरत मन में ऐसी बसी,
मूरत संग ब्याह रचा गई मीरा।
मेवाड़ उसे अपना न सका,
पर सारे जहां पर छा गई मीरा।
(3)
जब राणा ने विष का प्याला दिया,
चरणामृत कह के चढ़ा गई मीरा।
उस सांप पिटारे से मौत को भी,
गोपाल समझ के उठा गई मीरा।
वो रानी जो दर्द दीवानी थी अपने,
दर्द को कैसे पचा गई मीरा।
मेवाड़ को अपने मोहन का,
वृन्दावन धाम बना गई मीरा।
(4)
धोबी के धोए न रंग उडे,
कुछ चादर ऐसी रंगा गई मीरा।
वंशी की तान से ताल मिला,
अनहद नाद सुना गई मीरा।
गुरु ज्ञान का अमृत पान किया,
तो नाम रतन धन पा गई मीरा।
वो प्रेम नदी उमगी उफ़नी,
और कृष्ण पयोधि समा गई मीरा।