अष्टदशोऽअध्यायः(शेष भाग)
मोक्षसंन्यासयोग

फल की इच्छा रखने वाला, धर्म, अर्थ, काम को धारे
वह धारणा शक्ति राजस, जिससे मोक्ष नहीं विचारे

जो दुर्बुद्धि पूर्ण धृति, स्वप्नों में उलझाये रखती
भय, शोक से परे न जाती, वह तामसिक कहलाती

तीन तरह के सुख भी होते, जिनसे मानव बंधा हुआ है
कभी–कभी अभ्यास से जिनके, दुखों का भी अंत हुआ है

जो सुख मिलता विषयों से, जब इन्द्रियां उनसे जुड़तीं
अमृत तुल्य लगता पहले, अंत में विष सम, सुख रजोगुणी

निद्रा, आलस और प्रमाद से, जो तामस सुख नर को मिलता
अंत हो या आरम्भ सभी दुःख, आत्मा को है मोहित करता

पृथ्वी हो या गगन अनंत, चाहे देवों का लोक हो
कोई कहीं नहीं है ऐसा, तीनों गुणों से जो मुक्त हो

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र के, कर्म स्वभाव से उत्पन्न होते
गुणों के द्वारा भेद है उनमें, भिन्न-भिन्न कर्म वे करते

अंतः करण का निग्रह करना, आत्मसंयम व पवित्रता
सहनशीलता, सत्यनिष्ठा, क्षमाशीलता और सरलता

वेद, शास्त्र, वेदों में श्रद्धा, परमात्मा के तत्व का अनुभव
ज्ञान, विज्ञान और धार्मिकता, ब्राह्मण के गुण स्वभाव गत

खेती, गोपालन, व्यापार, कर्म स्वाभाविक हैं वैश्य के
सबकी सेवा, श्रम शारीरिक, कर्म यही हैं शुद्र जनों के

अपने-अपने कर्म में रत हो, मानव सिद्धि पा सकता है
तुझसे कहता सुन हे अर्जुन, कैसे मानव तर सकता है

जिससे सारे प्राणी उपजे, जिससे यह जगत व्याप्त है
उसकी पूजा निज कर्मों से, जो करे, सहज वह उसे प्राप्त है

निज धर्म ही श्रेष्ठ है अर्जुन, चाहे कितना गुण रहित है
भली प्रकार आचरण किया हो, पर धर्म फिर भी गर्हित है

स्वधर्म निज प्रकृति से उपजा, कभी पाप में नहीं लगाता
अपने-अपने धर्म का पालन, मानव को श्रेष्ठतर बनाता

दोषयुक्त हो चाहे कितना, सहज कर्म कभी न त्यागें
जैसे अग्नि ढकी धूम से, सभी कर्मों में दोष व्यापते

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