परजीवी.

बड़ी जतन से गरीबों के बचते है छप्पर

कहीं अधिक परिश्रम से पलते है बच्चे

आंसू और पसीने के मिश्रण से

जुट पाती है लाठियां

भूख,बीमारी की आंच में तपकर

बाधाओं के थपेड़े खाकर होश सम्भाले

बच्चों से

पलती है कल की उम्मीदें

गरीब भूमिहीन मांताओ और बापों के

उम्मीद खड़ी नही हो पाती

रौंद जाता है

बूढी दबंगता का जनून,विशमता की महामारी

घूसखोरी,क्षेत्रवाद,भाई-भतीजावाद का आतंक

और

भयावह राजनीति रूपी परजीवी...........

आदमी गरीब नही होता

बना दिया जाता है

मौके छिन लिये जाते है

दिला दी जाती है

गरीब हो कि कसम

गर मिल जाती अच्छी तालिम

विकास की राह चलने का मौका

बदल जाती ठगी तकदीर

काश ऐसा हो जाता

तो

रोशन हो जाता गरीब का जहां भी.....

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