सुबह

अलका सैनी

आज की सुबह पता नहीं क्यों
लग रही अलग -अलग
पवन में वह तरंग नहीं
कोयल की कूक में वह मिठास नहीं
धूप में वह गुलाबीपन नहीं
ऐसा लग रहा है मानो
अपना कोई अंग कट गया हो

कल भंयकर बारिश हुई
बिजली कड़की, बादल गरजे
मैंने अपने को समेटा बिस्तर के भीतर
कहीं कानों में उसकी आवाज न पड़े

मेरे शब्दों के आकाश के अंतिम छोर पर
कल खूनी अंधेरा उतरा
और उसमें मेरी बची खुची नाम मात्र स्मृति
भी हमेशा के लिए विलीन हो गई

आज की यह सुबह कहती है
दे दो तुम्हारी चेतना हमेशा के लिए
उसकी यह भाषा मुझे समझ में नहीं आई
मगर अब दिखने लगा आकाश में कुछ नयापन
नदी, नदी के पार के वन
कब तक न बदलेगा भला
मेरे जीवन का कालापन ?

कभी उसके आगे मेरे सीने की
धड़कनें बढ़ती थी
मुझे क्या पता मेरे जीवन काल के
पथरीले मोड पर
अपदस्त होने का योग है
या सारे सम्बन्धों से ऊपर उठकर
हँसते हुए मृत्यु को गले लगाने का

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