स्वीकारोक्ती


मन ने कर लिया स्वीकार
जिंदगी तो अब यहही है

अब जोशे खून मद्धिम हो चला
जब जीबन अंत की और चला
एक धुंदली सी परछाई छोढ़ चला
अंतिम पढ़ाव पर कदम बढ़ चला
अब कियों करूँ किसी का इंतजार
जब मन ने कर लिया स्वीकार
जिंदगी तो अब यहही है

क्या पता कोई दिल पिघले ना पिघले
कोई साथ चले या ना चले
सूरज कंही डूब जाये साँझ तले
क्या पता अब मंजिल मिले ना मिले
अब कियों करूँ किसी से मैं मनुहार
जब मन ने कर लिया स्वीकार
जिंदगी तो अब यहही है

चंदा की चांदनी मैं पूनम की रात
झिलमिल तारों मैं रौशनी की सौगात
तपती धरा पर गिरे अगर बरसात
आशाओं की कई ऐसी अनगिनत बात
बीते लम्हों से हारा,कैसे कंरू मन को तैयार
जब मन ने कर लिया स्वीकार
जिंदगी तो अब यहही है

जो लढ़ाई मैं ने लढ़ी
यातनाओं के बंधन की ऐसी थी कढ़ी
हर पल निराशा और छटपटाहट बढ़ी
भाग्य फल की बातें केवल किताबों मैं पढ़ी
झेलते झेलते आगया जीबन के अंतिम द्वार
तब मन ने कर लिया स्वीकार
जिंदगी तो अब यहही है

क्या भरोसा मिट्टी का घरोंदा
सूखे बंजर खेत का कोमल सा पोदा
हिसाब के खाते मैं लिखा घाटे का सौदा
अनबुझी पहेली सा सुलझे यदा कदा
समझोता करूँ कैसे जिंदगी से बारबार
अब मन ने कर लिया स्वीकार
जिंदगी तो अब यहही है


:- सजन कुमार मुरारका

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