तुम्हारे वरद-हस्त –(डॉ.) कविता वाचक्नवी


मेरे पिता !
एक दिन
झुलस गए थे तुम्हारे वरद-हस्त,
पिघल गई बोटी-बोटी उँगलियों की।
देखी थी छटपटाहट
सुने थे आर्त्तनाद,
फिर देखा चितकबरे फूलों का खिलना,
साथ-साथ
तुम्हें धधकते
किसी अनजान ज्वाल में
झुलसते
मुरझाते,
नहीं समझी
बुझे घावों में
झुलसता
तुम्हारा अन्तर्मन
आज लगा…
बुझी आग भी
सुलगती
सुलगती है
सुलगती रहती है।

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