वो कहते है कि "भूल जाऊ में उन्हें ”,
पर कोई बताये तोह हमे कि भला ये कैसे मुमकिन है?
जबकि बसा हो कोई हर सांस में
तोह भला में सांस लेना छोड़ू तो कैसे
उनसे दूर रहना सजा कट रही हो जैसे
“गुस्ताकी जो उनसे प्यार करने की ” की है हमने
सजा उसकी क्या इतनी बड़ी है- कि उम्र भर सहेगे अब हम इसको
अब तो एहसास यही हर पल होता है -
"कि जैसे तरस रही हूँ मै - बस उनकी आवाज़ सुनने को ,
कि जैसे आँखे ये मेरी सिर्फ उनके दीदार का ही अरमान रखती हो ,
कि जैसे ये दिल ये मेरा उन्ही के लिए धड़कता है ,
कि जैसे में सिर्फ उनसे मिलने का ख्वाब देखती हूँ ,
एहसास जो जागे है, उन्हें भला में दफन करू तो कैसे ”
वोह तो जैसे मेरे मांजी बन गए हो अब तो
उन्हें मिलकर क्यों मै इतना बदल सी गयी,
क्यों अपनों में ही परायी सी लगती हु
क्यों हर वक़्त खोयी-खोयी सी मै रहने लगी
क्यों महफिलों में होकर भी अकेली में हो गयी
क्यों भूल बेठी हु में सब कुछ उनके नाम के सिबाय
क्यों याद कुछ भी अब तो रहता नहीं
क्यों खुली आँख से दिन में ख्वाब मै देखने लगी
क्यों सिर्फ उनके खयालो में रहने ही बस आचा मुझे लगने लगा
उन्हें भूलने कि कोशिश नही कि हमने -ऐसा तोह नही
पर हर बार यही कोशिश क्यों नाकाम फिर होती है
क्यों उन्हें पाने कि आरजू इस दिल मै हर वक़्त समायी रहती है
जानकार भी सब कुछ क्यों अनजान मै बनती हु
क्यों मेरी जिंदगी उनके बिन एक सजा सी बन लगती है
पर उनसे कोई सिकवा भी तो नहीं हमको
क्यूंकि खुद हम ना रोक पाए खुदको- " इन एहसासों कि गिरफ्त मे जाने से "
वोह कहते है कि "भूल जाऊ मै उन्हें ”,
पर कोई बताये तोह हमे कि भला ये कैसे मुमकिन है ?
ज्योति चौहान