अख़बार वाला मूर्ति (लघुकथा)

हाँ यह वही तो है जो 35 साल पहले मेरे नये घर का दरवाजा खटखटाकर, शिष्टाचार के साथ सवाली आँखों से खड़ा था. दरवाजा खोलते हुए मैंने भी सवाली आँखों से बिना कुछ कहे पूछा था
"मैं अख़बार लाता हूँ ,पूरी कॉलोनी के लिये. आप को भी चाहिए तो बता दीजिए"
"अरे बहुत अच्छा किया ! कल इतवार है और हर इतवार को हमारी सिंधी अख़बार 'हिंदवासी' आती है जो ज़रूर मुझे दीजिएगा"
"अच्छा" कहकर वह यह कहते हुए सीड़ियाँ उतरने लगा "पाँच रुपए का है वह" और अपनी तेज़ रफ़्तार से वह दो मज़िल उतर गया. 1973 की बात आई गई हो गयी. हर दिन, हर घर को, कई साल बीतने के बाद भी बिना नागे वह अख़बार पहुंचाता रहा और मैं पढ़ती रही हूँ, दूर दूर तक की ख़बरें. शायद अख़बार न होता तो हम कितने अनजान रह जाते समाचारों से, शायद इस ज़माने की भागती जिंदगी से उतना बेहतर न जुड़ पाते. अपने आस पास की हाल चाल से बखूबी वाकिफ़ करती है यह अख़बार.
पिछले दो साल में लगातार अपनी रसोई घर की खिड़की से सुबह सात बजे चाय बनाते हए देखती हूँ 'मूर्ति' को, यही नाम है उसका. बेटी C.A करके बिदा हो गयी है, बेटा बैंक में नौकरी करता है, और मूर्ति साइकल पर अख़बार के बंडल लादे, उसे चलता है, एक घर से दूसरे घर में पहुंचाता है, जाने, दिन में कितनी सीड़िया चढ़ता उतरता है. एक बात है अब उसकी रफ़्तार पहले सी नहीं. एक टाँग भी थोड़ी लड़खड़ाने लगी है. 35 साल कोई छोटा अरसा तो नहीं, मशीन के पुर्ज़े भी ढीले पढ़ जाते है, बदले जाते है, पर इंसानी मशीन उफ़! एक अनचाही पीड़ा की ल़हर सिहरन बन कर सीने से उतरती है और पूरे वेग से शरीर में फैल जाती है. वही 'मूर्ति' अब अख़बार के साथ, खुद को ढोने का आदी हो गया है. थोड़ा देर से ही, पर अख़बार पहुंचाता है, दरवाजे की कुण्डी में टाँग जाता है. जिस दौर से वह अख़बार वाला गुज़रा है, वह दौर हम भी उन अख़बारों को पढ़ते पढ़ते जीकर आए है . पर पिछले दो साल से उस इन्सान को, उसके चेहरे की जर्जराती लकीरों को, उसकी सुस्त चाल को पढ़ती हूँ तो लगता है यह तो आप बीती है. आईने के सामने रूबरू होते है पर कहाँ ख़ुद को भी देख पाते हैं, पहचान पाते हैं. बस वक़्त मुस्कुराता रहता है हमारी जवानी को जाते हुए और बुढ़ापे को आते हुए देखकर.
और मैं वहीं चाय का कप हाथ में लेकर सोचती हूँ, क्या यही जिंदगी है्? हाँ अजब है यह जिंदगी, खुद तो जीती है, पर वो हुनर उस अख़बरवाले मूर्ति को न सिखा पाई. उससे आज भी बोझ उठवाती है, उसकी कंपकपाते हड्डियों पर ज़्यादा बोझ डलवाती है, घरों की मंज़िलों तक का सफ़र तय करवाती है और धीरे धीरे दिखाई देता है मेरी खिड़की के सामने वाली सीड़ी से उतरता हुआ अख़बार वाला मूर्ति, जिसकी जिंदगी को हम शायद पल दो पल रुककर अख़बार के पन्नों की तरह कभी पढ़ न पाए. मैने पीछे पलटते हुए देखा है, इन अख़बारों को रद्दी में जाते हुए, आदमी पुराना फिर भी रोज़ नया अख़बार ले आता है.
देवी नागरानी

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