. भिक्षा पात्र (लघुकथा)


दरवाज़े पर भिक्षा दते हुए देवेन्द्र नारायण सोच रहे थे, ये सिलसिला कब तक चलेगा ? दरवाज़े पर आए भिक्षुक को खाली हाथ न भेजो यह तो पिताजी के ज़माने से चलता आ रहा है! और इसी सोच की बेख्याली में भिक्षा, पात्र में न पड़कर नीचे ज़मीन पर गिरी. कुछ रूखे अंदाज़ से बढ़बढ़ाते हुए वे कह उठे, "भई ज़रा उठा लेना, मैं जल्दी में हूँ" और कहते हुए वे भीतर चले गए.
बरसों बीत गए और ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव जहाँ ऊँठ जैसी करवट लेकर थमे, वहाँ पासा भी पलटा. सेठ देवेन्द्र नारायण मसाइलों की गर्दिश से गुज़र कर खास से आम हो गए और फिर पेट पर जब फ़ाकों की नौबत आई तो वही हुई जो न होना था. नियति कहें या परम विधान!
एक दिन वो भिक्षा पात्र लेकर उसी भिक्षू के दरवाज़े की चौखट पर आ खड़े हुए जिसे एक बार उन्होंने अनचाहे मन से भिक्षा दी थी. बाल भिक्षू अब सुंदर गठीला नौजवान हो गया था और कपड़ों से उसके मान-सम्मान की व्याख्यान मिल रही थी. सर नीचे किये हुए सोच से घिरे देवेन्द्र नारायण कहीं अतीत में खो गए.
"मान्यवर आप कृपया अपना पात्र सीधा रखें ताकि मैं आपकी सेवा कर पाऊँ." नौजवान की विनम्र आवाज़ ने देवेन्द्र नारायण के हृदय में करुणा भर दी और साथ में दीनता भी. नौजवान ने उनके भावों को पहचानते हुए विनम्र भाव कहा - "हम तो वही है मान्यवर बस स्थान बदल गए है और यह परिवर्तन एक नियम है जो हमें स्वीकारना है, इस भिक्षा की तरह. न हमारा कुछ है, न आपका ही कुछ है। बस लेने वाले हाथ कभी देने वाले बन जाते हैं.".
देवी नागरानी

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